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अष्टादशं पर्व
परीषहमहावातरक्षोभ्यमजलाशयम् । दोषयादाभिरस्पृष्टमपूर्वमिव वारिधिम् ॥१.४n. सादरं च समासाद्य पश्यन् भगवतो वपुः । विसिध्मिय तपोलक्ष्म्या परिरब्धमधीद्वया ॥१०५॥ परीत्य प्रणतो मक्त्या स्तुत्वा च स जगद्गुरुम् । कुमाराविति सोपायमवदत् संवृताकृतिः ॥१०६॥ युवा युवानो दृश्येथे सायुधी विकृताकृती । तपोवनं च पश्यामि प्रशान्तमिदमूर्जितम् ॥१०॥ क्वेदं तपोवनं शान्तं क्व युवा भीषणाकृती। प्रकाशतमसोरष संगमो नन्वसंगतः ॥१०॥ अहो निन्द्यतरा मोगा यैरस्थानेऽपि योजयेत् । प्रार्थनामर्थिनां का वा युक्तायुक्तविचारणा ॥१०९॥ प्रवान्छथो युवां मोगान् देवोऽयं भोगनिःस्पृहः। तद्वा शिलातले भोजवाम्छा चित्रीयतेऽद्य नः ॥१०॥ सस्पृहः स्वयमन्यांश्च सस्पृहानेव मन्यते । को नाम स्पृहयेद्धीमान मोगान् पर्यन्ततापिनः ॥११॥ 'आपातमानरम्याणां मोगानां वशगः पुमान् । महानप्यर्थिता दोषात् सद्यस्तृण लघुर्भवेत् ॥११२॥
युवां चेमोगकाम्यन्तौ" व्रजतं भरतान्तिकम् । स हि साम्राज्यधौरेयो वर्तते नृपपुङ्गवः ॥११३॥ भी तिरस्कृत कर रहे थे ॥१०३॥ अथवा भगवान् किसी अनोखे समुद्रके समान जान पड़ते थे क्योंकि उपलब्ध समुद्र तो वायुसे क्षुभित हो जाता है परन्तु वे परीषहरूपी महावायुसे कभी भी क्षुभित नहीं होते थे, उपलब्ध समुद्र तो जलाशय अर्थात् जल है आशयमें (मध्यमें)जिसके ऐसा होता है परन्तु भगवान् जडाशय अर्थात् जड (अविवेक युक्त) है आशय (अभिप्राय )जिनका ऐसे नहीं थे, उपलब्ध समुद्र तो अनेक मगर-मच्छ आदि जल-जन्तुओंसे भरा रहता है. परन्तु भगवान् दोषरूपी जल-जन्तुओंसे छुए भी नहीं गये थे ॥१०४॥ इस प्रकार भगवान वृषभदेवके समीप वह धरणेन्द्र बड़े ही आदरके साथ पहुँचा और अतिशय बढ़ी हुई तपरूपी लक्ष्मीसे आलिङ्गित हुए भगवानके शरीरको देखता हुआ आश्चर्य करने लगा ॥१०५।। प्रथम ही उस धरणेन्द्रने जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया, उनकी स्तुति की और फिर अपना वेश छिपाकर वह उन दोनों कुमारोंसे इस प्रकार सयुक्तिक वचन कहने लगा ॥१०६।। हे तरुण पुरुषो, ये हथियार धारण किये हुए तुम दोनों मुझे विकृत आकारवाले दिखलाई दे रहे हो और इस उत्कृष्ट तपोवनको अत्यन्त शान्त देख रहा हूँ ॥१०७।। । कहाँ तो यह शान्त तपोवन, और कहाँ भयंकर आकारवाले तुम दोनों ? प्रकाश और अन्धकारके समान तुम्हारा समागम क्या अनुचित नहीं है ? ॥१०८।। अहो, यह भोग बड़े ही निन्दनीय हैं जो कि अयोग्य स्थानमें भी प्रार्थना कराते हैं अर्थात् जहाँ याचना नहीं करनी चाहिए वहाँ भी याचना कराते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि याचना करनेवालोंको योग्य अयोग्यका विचार हो कहाँ रहता है । ॥१०९।। यह भगवान तो भोगोंसे निःस्पृह हैं और तुम दोनों उनसे भोगोंकी इच्छा कर रहे हो सो तुम्हारी यह शिलातलसे कमलकी इच्छा आज हम लोगोंको आश्चर्ययुक्त कर रही है। भावार्थ-जिस प्रकार पत्थरकी शिलासे कमलोंकी इच्छा करना व्यर्थ है उसी प्रकार भोगोंकी इच्छासे रहित भगवानसे भोगोंकी इच्छा करना व्यर्थ है ॥११०॥ जो मनुष्य स्वयं भोगोंकी इच्छासे युक्त होता है वह दूसरोंको भी वैसा ही मानता है, अरे, ऐसा कौन बुद्धिमान् होमा जो अन्तमें सन्ताप देनेवाले इन भोगोंकी इच्छा करता हो ॥१११॥ प्रारम्भ मात्रमें ही मनोहर दिखाई देनेवाले भोगोंके वश हुआ पुरुप चाहे जितना बड़ा होनेपर भी याचनारूपी दोपसे शीघ्र ही तृणके समान लघु हो जाता हे ॥११२।। यदि तुम दोनों भोगोंको चाहते हो तो भरतके समीप जाओ क्योंकि इस समय वही साम्राज्यका भार धारण करनेवाला है और
१. आलिंगितम् । २. अत्यर्थ प्रवृद्धया । ३. आकारान्तरेणाच्छादितनिजाकारः । ४. अर्थात्यध्याहारः । ५. तत्कारणात् । वां युवयोः। ६. चित्रं करोति । ७. परिणमनकाल। ८. अनुभवमात्रम् । ९. याच्या। १०. तृणवल्लघुः । ११. भोगमिच्छन्तौ । १२. धुरन्धरः ।