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अष्टादशं पर्व
४०५ पदयोरस्य वन्येमाः समुत्फुल्लं सरोरुहम् । ढोकयामासुरानीय तपःशक्तिरही परा ॥४५॥ बमा राजीवमारक्तं करिणां पुष्कराश्रितम् । पुष्करश्रियमानेडी कुर्बभनुरुषासने ॥८६॥ प्रशमस्य विभोरगात् विसर्पन्त इवांशकाः । असहय वशमानिन्युरवशानपि तान् मृगान् ॥८॥ अनाशुषोऽपि नास्यासीत् क्षुद्वाधा भुवनेशिनः । संतोषभावनोत्कर्षाज्जयगृति मगृनुता ॥१०॥ चलन्ति स्म तदेन्द्राणामासनान्यस्य योगतः । चित्रं हि महतां धैर्य जगदाकम्पकारणम् ॥८९॥ इति षण्मासनि वय॑त्प्रतिमायोगमापुषः । स कालः क्षणबभर्तुरंगमद् धैर्यशालिनः ॥१०॥ अत्रान्तरे किलायाता" कुमारी सुकुमारको । सून कच्छमहाकच्छनृपयोनिकटं गुरोः ॥११॥ नमिश्च विनमिश्चेति प्रतीतौ भक्तिनिर्भरौ । भगवत्पादसंसेवां कर्तुकामो युवेशिनौ ॥१२॥ भोगेषु सतृषावेतो प्रसीदेति कृतानती। पदयस्य संलग्नी भजतुर्थ्यानविघ्नताम् ॥१३॥ स्वयेश पुत्रनप्तृभ्यः संविभक्तमभूदिदम् । साम्राज्यं विस्मृतावावामतो भोगान् प्रयच्छ नौ ॥१.४।' इत्येवमनुबध्नन्तौ युक्तायुक्तानभिज्ञको । तौ तदा जलपुष्पा(रु पासामासतुर्विभुम् ॥९५॥ .
ततः स्थासनकम्पेन "तदज्ञासीत् फणीश्वरः । धरणेन्द्र इति ख्यातिमुद्वहन् भावनामरः ॥९६॥ होते थे ।।८४॥ अहा, भगवानके तपश्चरणकी शक्ति बड़ी ही आश्चर्यकारक थी कि वनके हाथी भी फूले हुए कमल लाकर उनके चरणों में चढ़ाते थे ॥८५।। जिस समय वे हाथी फूले हुए कमलों-द्वारा भगवानकी उपासना करते थे उस समय उनके सूंड़के अग्रभागमें स्थित लाल कमल ऐसे सुशोभित होते थे मानो उनके पुष्कर अर्थात सूंडके अग्रभागकी शोभाको दूनी कर रहे हों ॥८६॥ भगवान्के शरीरसे फैलती हुई शान्तिकी किरणोंने कभी किसीके वश न होनेवाले सिंह आदि पशुओंको भी हठात् वशमें कर लिया था ॥८॥ यद्यपि त्रिलोकीनाथ भगवान् उपवास कर रहे थे-कुछ भी आहार नहीं लेते थे तथापि उन्हें भूखकी बाधा नहीं होती थी, सो ठीक ही है, क्योंकि सन्तोषरूप भावना उत्कर्षसे जो अनिच्छा उत्पन्न होती है वह हरएक प्रकारकी इच्छाओं (लम्पटता ) को जीत लेती है ।।८।। उस समय भगवान्के ध्यानके प्रताप से इन्द्रोंके आसन भी कम्पायमान हो गये थे। वास्तवमें यह भी एक बड़ा आश्चर्य है कि महापुरुषोंका धैर्य भी जगत्के कम्पनका कारण हो जाता है ।।८९॥ इस तरह छह महीने में समाप्त होनेवाले प्रतिमा योगको प्राप्त हुए और धैय शोभायमान रहनेवाले भगवान्का वह लम्बा समय भी क्षणभरके समान व्यतीत हो गया ॥९॥ इसीके बीच में महाराज कच्छ. महाकच्छके लड़के भगवान्के समीप आये थे । वे दोनों लड़के बहुत ही सुकुमार थे, दोनों ही तरुण थे, नमि तथा विनमि उनका नाम था और दोनों ही भक्तिसे निर्भर होकर भगवान्के चरणोंकी सेवा करना चाहते थे ॥९१-९२॥ वे दोनों ही भोगोपभोगविषयक तृष्णासे सहित थे इस- - लिए हे भगवन् , 'प्रसन्न होइए' इस प्रकार कहते हुए वे भगवान्को नमस्कार कर उनके चरणोंमें लिपट गये और उनके ध्यानमें विध्न करने लगे ॥९३॥ हे स्वामिन् , आपने अपना यह साम्राज्य पुत्र तथा पौत्रोंके लिए बाँट दिया है। बाँटते समय हम दोनोंको भूला ही दियाइसलिए अब हमें भी कुछ भोग सामग्री दीजिए ।।१४।। इस प्रकार वे भगवानसे बार-बार आग्रह कर रहे थे, उन्हें उचित-अनुचितका कुछ भी ज्ञान नहीं था और वे दोनों उस समय जल, पुष्प तथा अय॑से भगवानकी उपासना कर रहे थे ॥९५।। तदनन्तर धरणेन्द्र नामको धारण करनेवाले, भवनवासियोंके अन्तर्गत नागकुमार देवोंके इन्द्रने अपना आसन कम्पायमान होनेसे नमि, विनमिके इस समस्त वृत्तान्तको जान लिया ॥९६।। अवधिज्ञानके द्वारा इन
१. हस्ताग्राश्रितम् । २. द्विगुणीकुर्वत् । ३. आराधने । ४. अंशाः । ५. बलात्कारेण । ६. कांक्षाम् । ७. अनभिलापिता । ८. ध्यानतः । ९. भविष्यत् । १०. गतस्य । -मोयुपः प० । ११. आगती । १२. अस्मात् कारणात् । १३. आवयोः । १४. आराधनां चक्रतुः । १५. ध्यानविनत्वम् । १६. बुबुधे ।