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अष्टादशं पर्व मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिघाड्भूयमास्थितः । मिथ्यात्यवृद्धिमकरोदपसिद्धान्तमाक्तैिः ॥६॥ तदुपज्ञमभूद् योगशास्त्रं तन्त्रं च कापिलम् ।यनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ॥६२॥ इति तेषु तथाभूतां वृत्तिमासेदिवासु सः । तपस्यन् धीबलोपेतस्तथैवास्थान्महामुनिः ॥६३॥ स मेरुरिव निष्कम्पः सोऽक्षोभ्यो जलराशिवत् । स वायुरिव निःसंगो निलेपोम्बस्वत् प्रभुः ॥६४॥ तपस्तापेन तीव्रण देहोऽस्य व्यग्रुतत्तराम् । निष्टप्तस्य सुवर्णस्य ननु छायान्तरं भवेत् ॥६५॥ गुप्तयो गुप्तिरस्यासनङ्गत्राणं च संयमः । गुणाश्च सैनिका जाताः कर्मशत्रून् जिगोपतः ॥६६॥ तपोऽनशनमाचं स्याद् द्वितीयमवमोदरम् । तृतीयं वृत्तिसंख्यानं रसत्यागश्चतुर्थकम् ॥६॥ पञ्चमं "तनुसंतापो विविक्तशयनासनम् । षष्टमित्यस्य बाह्यानि तपास्यासन् महाधतेः ॥१८॥ प्रायश्चित्तादिभेदन षोठेवाभ्यन्तरं तपः'। तत्रास्य ध्यान एवासोत् परं तात्पर्यमाशितुः ॥६९॥ प्रतानि पञ्च पञ्चैव समित्याख्याः प्रयत्नकाः । "पज्ञ चेन्द्रियसंरोधाः पोढावश्यकमिप्यते ॥७०॥ कंशलोचश्च भूशय्या दन्तधावनमेव च । अचेलत्यमथास्नानं स्थितिभोजनमत्यदः ॥७॥ एकभुक्तं च तस्यासन् गुणा मौलाः पदातयः । तेष्वस्य महती शुद्धिरभूत् ध्यानविशुद्धितः ॥७२॥
की पूजा करते थे। स्वयम्भू भगवान वृपभदेवको छोड़कर उनके अन्य कोई देवता नहीं था ॥६॥ भगवान वृपभदेवका नाती मरीचिकुमार भी परिव्राजक हो गया था और उसने मिथ्या शास्त्रोंके उपदेशसे मिथ्यात्वकी वृद्धि की थी॥६शा योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र प्रारम्भमें उसीके द्वारा कहे गये थे, जिनसे मोहित हुआ यह जीव सम्यग्ज्ञानसे पराङ्मुख हो जाता है. ॥६२।। इस प्रकार जब कि वे द्रव्यलिङ्गी मुनि ऊपर कही हुई अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिको प्राप्त हो गये तब बुद्धि बलसे सहित महामुनि भगवान् वृषभदेव उसी प्रकार तपस्या करते हुए विद्यमान रहे थे ॥६३।। वे प्रभु मेरुपर्वतके समान निष्कम्प थे, समुद्र के समान क्षोभरहित थे, वायुके समान परिग्रहरहित थे और आकाशके समान निर्लेप थे । ६४ ॥ तपश्चरणके तीत्र तापसे भगवान्का शरीर बहुत ही देदीप्यमान हो गया था सो ठीक ही है, तपाये हुए सुवर्णको कान्ति निश्चयसे अभ्य हो ही जाती है ॥६५॥ कर्मरूपी शत्रुको जीतनेकी इच्छा करनेवाले भगवान्की मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ ही किले आदिके समान रक्षा करनेवाली थी, संयम ही शरीरकी रक्षा करनेवाला कवच था और सम्यग्दर्शन आदि गुण हो उनके सैनिक थे ॥६॥
पहला उपवास, दूसरा अवमौदर्य, तीसरा यत्तिपरिसंख्याम, चौथा रसपरित्याग, पांचवों कायक्लेश और छठमाँ विविक्तशय्यासन यह छह प्रकारके बाह्य तप महा धीर-बीर भगवान वृपभदेवके थे ॥६७-६८।। अन्तरङ्ग तप भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग
और ध्यानके भेदसे छहाप्रकारका ही है। उनमें-से भगवान् वृपभदेवके ध्यानमें ही अधिक तत्परता रहती थी अर्थात् वे अधिकतर ध्यान ही करते रहते थे ॥६९।। पाँच महात्रत, समिति नामक पाँच सुप्रयत्न, पाँच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, पृथिवीपर सोना, दातौन नहीं करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिनमें एक बार ही भोजन करना इस प्रकार अट्ठाईस मूल गुण भगवान् वृषभदेवके विद्यमान थे जो कि उनके पदातियों अर्थात् पैदल चलनेवाले सैनिकोंके समान थे। ध्यानकी विशुद्धताके कारण भगवान के इन
१. परिव्राजकत्वम् । २. आथितः । ३. तेन मरीचिना प्रथमोपदिष्टम् । ४. ध्यानशास्त्रम् । ५. सांख्यम् । ६. शास्त्रेण । ७. संरक्षणम् । ८. कवचम् । ९. कर्मशत्रु अ०, म०, ल० । १०. कायक्लेशः। ११. पञ्चैवेन्द्रिय-अ०, प०, म०, ल० । १२. व्यानविशुद्धधन: ब०, १०, १०, रा०, द० ।