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आदिपुराणम् अहो किमृषयो भग्ना महष गन्तुमक्षमाः । पदवी तामनालीढामन्यैः सामान्यमयकैः ॥४९॥ किं महादन्तिनो भारं निर्वोदु कलमाः क्षमाः । पुंगवैर्वा भरं कृष्टं कर्षेयुः किमु दम्यकाः ॥५०॥ ततः परोषदर्भग्नाः फलान्याहर्तुमिच्छवः । प्रसस्रुर्वनषण्डेषु सरस्सु च पिपासिताः ॥५१॥ फलेग्रहीनिमान् दृष्ट्वा पिपासुंश्च स्वयं ग्रहः । न्यषधन्नै"वीहध्वमिति तान् वनदेवताः ॥५२॥ इदं रूपमदीनानामहतां चक्रिणामपि । निषेव्यं कातरत्वस्य पदं माकार्ट बालिशाः ॥५३॥ इति तद्वचनाद् मीतास्तद्रपेण तथेहितुम् । नानाविधानिमान् वेषान् जगृहुर्दीनचेप्टिताः ॥५४॥ केचिद् वल्कलिनो भूत्वा फलान्यादन् पपुः पयः । परिधाय परे जीणं कौपीनं चक्रीप्सितम् ॥५५॥ अपरे मस्मनोद्गुण्ठय स्वान् देहान् जटिनोऽभवन् । एकदण्डधराः केचित्केचिच्चासंमिदण्डिनः ॥५६॥ प्राणैरास्तिदेत्यादिवेषैर्ववृतिरे चिरम् । वन्यैः कशिपुमिः स्वच्छै लैः कन्दादिभिश्च ते ॥५॥ भरताद बिभ्यतां तेषां देशस्यागः स्वतोऽभवत् । ततस्ते वनमाश्रित्य तस्थुस्तत्र कृतोटजाः ॥५८॥ तदासंस्तापसाः पूर्व परिव्राजश्च केचन । पाषण्डिनां ते प्रथमे बभवुर्मोहदूषिताः ॥५९॥
पुष्पोपहारैः सजलैर्भर्तुः पादावयक्षत" । न देवतान्तरं तेषामासीन्मुक्त्वा स्वयंभुवम् ॥६०॥ हो गये थे-अन्यत्र चले गये थे ॥४८॥ खेद है कि जिसे अन्य साधारण मनुष्य स्पर्श भी नहीं कर सकते ऐसे भगवान्के उस मार्गपर चलनेके लिए असमर्थ होकर वे सब खोटे ऋपि तपस्या से भ्रष्ट हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बड़े हाथीके बोझको क्या उसके बच्चे भी धारण कर सकते हैं ? अथवा बड़े बैलों-द्वारा खींचे जाने योग्य बोझको क्या छोटे बछड़े भी खींच सकते हैं ? ॥४९-५०॥ तदनन्तर परीषहोंसे पीड़ित हुए वे लोग फल लानेकी इच्छासे वनखण्डोंमें फैलने लगे और प्याससे पीड़ित होकर तालाबोंपर जाने लगे ॥५१॥ उन लोगोंको अपने ही हाथसे फल ग्रहण करते और पानी पीते हुए देखकर वन-देवताओंने उन्हें मना किया और कहा कि ऐसा मत करो। हे मूर्यो, यह दिगम्बर रूप सर्वश्रेष्ठ अरहन्त तथा चक्रवर्ती आदिके द्वारा भी धारण करने योग्य है इसे तुम लोग कातरताका स्थान मत बनाओ। अर्थात् इस उत्कृष्ट वेषको धारण कर दीनोंकी तरह अपने हाथसे फल मत तोड़ो और न तालाब आदिका अप्रासुक पानी पीओ ॥५२-५३।। वनदेवताओंके ऐसे वचन सुनकर वे लोग दिगम्बर वेषमें वैसा करनेसे डर गये इसलिए उन दीन चेष्टावाले भ्रष्ट तपस्वियोंने नीचे लिखे हुए अनेक वेष धारण कर लिये ॥५४॥ उनमें से कितने ही लोग वृक्षोंके वल्कल धारण कर फल खाने लगे और पानी पीने लगे और कितने ही लोग जीर्ण-शीर्ण लंगोटी पहनकर अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे ॥५५॥ कितने ही लोग शरीरको भस्मसे लपेटकर जटाधारी हो गये, कितने ही एकदण्डको धारण करनेवाले और कितने ही तीन दण्डको धारण करनेवाले साधु बन गये थे ॥५६॥ इस प्रकार प्राणोंसे पीड़ित हुए वे लोग उस समय ऊपर लिखे अनुसार अनेक वेष धारणकर वनमें होनेवाले वृक्षोंकी छालरूप वस्त्र, स्वच्छ जल और कन्द मूल आदिके द्वारा बहुत समय तक अपनी वृत्ति (जीवन निर्वाह ) करते रहे ॥५७॥ वे लोग भरत महाराजसे डरते थे इसलिए : उनका देशत्याग अपने आप ही हो गया था अर्थात् वे भरतके डरसे अपने-अपने नगरोंमें नहीं गये थे किन्तु झोंपड़े बनाकर उसी वनमें रहने लगे थे ।।५८।। वे लोग पाखण्डी तपस्वी तो पहलेसे ही थे परन्तु उस समय कितने ही परिव्राजक हो गये थे और मोहोदयसे दूपित होकर - पाखण्डियोंमें मुख्य हो गये थे ।।५९।। वे लोग जल और फूलोंके उपहारसे भगवानके चरणों
१. कुत्सिता ऋषयः। २. धृतम् । ३. वहेयुरिति यावत् । ४. वत्सतराः। ५. प्रसरन्ति स्म । ६. वनखण्डेषु अ०। ७. फलानि स्वीकुर्वाणान् । ८. पातुमिच्छन् । ९. निजस्वीकारैः । १०. निवारयन्ति स्म । ११.-धन्मेव-५०, अ० । १२. भक्षयन्ति स्म । १३. कृतपर्णशालाः । 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इत्यभिधानात्। १४. तु प्रथमे अ० । १५. मख्याः । १६. पूजयन्ति स्म ।