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अप्रादह पर्व
भगवान यमला इवः सिद्धयांगो भवेद् ध्रुवम् । मियांग कृतक्लेशानस्मानभ्यर पस्यते ॥३५॥ गुरोर्वा गुरुपुत्राद्वा पाडेयं नैव जानु नः । पूजासत्कारलाभश्च प्रीतः संग्रीणयत स नः ॥४०॥ इति धीरतया कंचिदन्तःशीभेऽप्य नातुराः । धीरयन्तोऽपि नात्मानं शेकुः स्थापयितुं स्थितौ ॥४१॥ अभिमानधनाः केचिद् भूयोऽपि स्थानुमुग्रताः । पतित्वाप्यवशं भूमौ संस्मरुगुरुपादयोः ॥४२॥ इन्युच्चावच संजल्पैः संकल्पैश्च पृथग्विधैः । विरम्यते तपःक्लेशाजीविकायां मतिं व्यधुः ॥१३॥ 'मुन्योन्मखं विभोर्दत्तदृष्टयः पृष्ठतोमुखाः । अशक्त्या लज्जया चान्ये भेजिरे स्खलितां गनिम् ॥४४।। 'अनापृच्छा गुरु केचित् केचिदाच्छय योगिनम् । परीत्य प्रणताः प्राणयात्रायां मतिमादधुः ॥४॥ कैचित्यमेव शरणं नान्या गनिरिहास्ति नः । इति ब्रुवाणा विद्राणाः प्राणग्राणे' मतिं व्यधुः ॥४६॥
अपत्रविष्णवः कंचिद् वेपमानप्रतीककाः" । गुरोः पराङ्मुखीभय जाता व्रतपराङ्मुखाः ॥४७॥ पादयोः पतिताः केचित् परित्रायस्व नः प्रभोः । "भुरक्षामाङ्गान् क्षमस्वेति ब्रुवन्तोऽन्तहिंता गुरोः ॥१८॥ यहीं सब कुछ सहन करें ॥३८।। यह भगवान अवश्य ही आज या कलमें सिद्धयाग हो जायेंगे अर्थात् इनका योग सिद्ध हो जायेगा और योगके सिद्ध हो चुकनेपर अनेक क्लेश सहन करनेवाले हम लोगोंको अवश्य ही अंगीकृत करेंगे- किसी न किसी तरह हमारी रक्षा करेंगे ॥३९॥ ऐसा करनेसे हम लोगोंको न तो कभी भगवानसे कोई पीड़ा होगी और न उनके पुत्र भरतसे ही। किन्तु प्रसन्न होकर वे दोनों ही पूजा-सत्कार और धनादिके लाभसे हम लोगोंको सन्तुष्ट करेंगे ॥४०॥ इस प्रकार कितने ही मुनि अन्तरंगमें क्षोभ रहते हुए भी धीरताके कारण दुःस्त्री नहीं हुए थे और कितने ही पुरुप आत्माको धैर्य देते हुए भी उसे उचित स्थितिमें रखने के लिए समर्थ नहीं हो सके थे ।।४।। अभिमान ही है धन जिनका ऐसे कितने ही पुरुष फिर भी वहाँ रहनेके लिए तैयार हुए थे और निवल होनेके कारण परवश जमीनपर पड़कर भी भगवान के चरणोंका स्मरण कर रहे थे।॥४२॥ इस प्रकार राजा अनेक प्रकारके ऊँचे-नीने भापण और संकल्प-विकल्प कर तपश्चरणसम्बन्धी क्लेशसे विरक्त हो गये और जीविकामें बुद्धि लगाने लगे अर्थात् उपाय सोचने लगे ॥४३॥ कितने ही लोग अशक्त होकर भगवानके मुखके सम्मुख देखने लगे और कितने ही लोगोंने लम्जाके कारण अपना मुख पीछेकी ओर फेर लिया । इस प्रकार धीरे-धीरे स्खलित गतिको प्राप्त हुए अर्थात् क्रम-क्रमसे जाने के लिए तत्पर हुए ॥१४॥ कितने ही लोग योगिराज भगवान् वृपभदेवसे पूछकर और कितने ही बिना पूछे ही उनकी प्रदक्षिणा देकर और उन्हें नमस्कार कर प्राणयात्रा (आजीविका) के उपाय सोचने लगे ।।४५।। हे देव, आप ही हमें शरणरूप हैं इस संसारमें हम लोगोंकी और कोई गति नहीं है, ऐसा कहकर भागते हुए कितने ही पुरुष अपने प्राणोंकी रक्षामें बुद्धि लगा रहे थे-प्राणरक्षाके उपाय विचार रहे थे ।।४६|| जिनके प्रत्येक अंग थरथर काँप रहे हैं ऐसे कितने हो लज्जावान पुरुप भगवानसे पराङ्मुख होकर व्रतोंसे पराङ्मुख हो गये थे अर्थात् लज्जाके कारण भगवान्के पाससे दूसरी जगह जाकर उन्होंने व्रत छोड़ दिये थे॥४७॥ कितने ही लोग भगवानके चरणोंपर पड़कर कह रहे थे कि “हे प्रभो ! हमारी रक्षा कीजिए, हम लोगोंका शरीर भूखसे बहुत ही कृश हो गया है अतः अब हमें क्षमा कीजिए" इस प्रकार कहते हुए वहाँसे अन्तर्हित
१. पालयिष्यति ।-नभ्युपपत्स्यते प० । २. अनाकुलाः । क्षोभेऽपि नातुगः। ३. नानाप्रकार । ४. नानाविधैः । ५. जीविते । ६. मुखस्याभिमुखम् । ७. वान्ये ल०, म०। ८. अभिज्ञाप्य । ९. प्राणप्रवृत्ती। १०. पलायमानाः। ११. रक्षणे । १२. लग्जागोलाः । 'लज्जा शोलोऽपत्रपिष्णुः' इत्यभिधानात । १३. कम्पमानशरीराः । १४. कृय।