________________
३९२
आदिपुराणम् गुरुः प्रमाणमस्माकमात्रिकामुत्रिकाथयोः । इति कच्छाइयो दीक्षां भेजिरे नृपसत्तमाः ॥२१६॥ स्नेहात् कंचित् परे मोहाद् भयात् केचन पार्थिवाः। तपस्यां संगिरन्ते स्म पुरोधायादिवेधसम्॥२१७॥ स तैः परिवृतो रंजे बिभुरव्यक्तसंयतैः । कल्पाधिप इबोदनः परीतो वालपादपैः ॥२८॥ स्वभावभास्वरं तेजस्तपोदीप्स्योपबृंहितम् । दधानः शारदो वाक्कों दिदीपेतितरां विभुः ॥२१९॥ जातरूपमिवोदारकान्तिकान्ततरं बभौ । जातरूपं प्रभोदीप्तं यथार्जाितवेदसः ॥२२॥ ततः स भगवानादिदेवो देवैः कृतार्चनः । दीक्षावल्ल्या परिष्वक्तः कल्पाधिप इवाबभौ ॥२३॥ तदा भगवतो रूपमसरूपं विमास्वरम् । पश्यनेसहस्रेण नापत्तृप्ति सहस्ररक ॥२२॥ ततस्त्रिजगदीशानं परं ज्योतिर्गिरां पतिम् ।"तुष्टास्तुष्टुवुरित्युच्चैः स्वःप्रष्ठाः परमेष्ठिनम् ॥२२३।। जगस्स्रष्टारमीशानमभीष्टफलदायिनम् । त्वामनिष्टविघाताय सममिष्टुमहे वयम् ॥२२४॥ गुणास्ते गणनातीताः स्तूयन्तेऽस्मद्विधैः कथम् । भक्त्या तथापि तद्वयों जात्तन्मः प्रोन्नतिमात्मनः।।२२५॥
'बहिरन्तमलापायात् स्फुरन्तीश गुणास्तव । धनोपरोधनिर्मुक्तमूरिव रवेः कराः ॥२२६॥ चाहते थे इसलिए उन्होंने भगवान्-जैसी निर्गन्ध वृत्तिको धारण किया था ॥२१५।। इस लोक
और परलोक सम्बन्धी सभी कार्योंमें हमें हमारे गुरु-भगवान् वृषभदेव ही प्रमाणभूत हैं यही विचारकरे कच्छ आदि उत्तम राजाओंने दीक्षा धारण की थी ।।२१६। उन राजाओंमें से कितने ही स्नेहसे कितने ही मोहसे और कितने ही भयसे भगवान् वृषभदेवको आगे कर अर्थात् उन्हें दीक्षित हुआ देखकर दीक्षित हुए थे ।।२१७। जिनका संयम प्रकट नहीं हुआ है ऐसे उन द्रव्यलिंगी मुनियोंसे घिरे हुए भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे मानो छोटेछोटे कल्प वृक्षोंसे घिरा हुआ कोई उन्नत विशाल कल्पवृक्ष ही हो ॥२१८।। यद्यपि भगवान्का तेज स्वभावसे ही देदीप्यमान था तथापि उस समय तपकी दीप्तिसे वह और भी अधिक देदीप्यमान हो गया था ऐसे तेजको धारण करनेवाले भमेवान् उस सूर्यके समान अतिशय देदीप्यमान होने लगे थे जिसका कि स्वभावभास्वर तेज शरद् ऋतुके कारण अतिशय प्रदीप्त हो उठा है ।।२१९।। जिस प्रकार अग्निकी ज्वालासे तपा हुआ सुवर्ण अतिशय शोभायमान होता है उसी प्रकार उत्कृष्ट कान्तिसे अत्यन्त सुन्दर भगवान्का नग्न रूप अतिशय शोभायमान हो रहा था ॥२२०॥ तदनन्तर देवोंने जिनकी पूजा की है ऐसे भगवान् आदिनाथ दीक्षारूपी लतासे आलिगित होकर कल्पवृक्षक समान सुशोभित हो रहथ ।।२२१॥ उस समय भगवान का अनुपम रूप अतिशय देदीप्यमान हो रहा था । उस रूपको इन्द्र हजार नेत्रोंसे देखता हुआ भी तृप्त नहीं होता था ।।२२२।। तत्पश्चात् स्वर्गके इन्द्रोंने अतिशय सन्तुष्ट होकर तीनों लोकों-. के स्वामी-उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप और वाचस्पति अर्थात् समस्त विद्याओंके अधिपति भगवान् वृषभदेवकी इस प्रकार जोर-जोरसे स्तुति को ।।२२३॥ हे स्वामिन् , आप जगत्के स्रष्टा हैं (कर्मभमिरूप जगतकी व्यवस्था करनेवाले हैं), स्वामी हैं-और अभीष्ट फलके देनेवाले हैं इसलिए हमलोग अपने अनिष्टोंको नष्ट करनेके लिए आपकी अच्छी तरहसे स्तुति करते हैं ।।२२४॥ हे भगवन्, हम-जैसे जीव आपके असंख्यात गुणोंकी स्तुति किस प्रकार कर सकते हैं तथापि हम लोग भक्तिके वश स्तुतिके छलसे मात्र अपनी अत्माकी उन्नतिको विस्तृत कर रहे हैं ।।२२५।। हे ईश, जिस प्रकार मेघोंका आवरण हट जानेसे सूर्यको किरणें स्फुरित हो जाती हैं, उसी प्रकार
१. श्रेष्ठाः । २. अज्ञानात् । ३. तपसि । ४. प्रतिज्ञां कुर्वन्ति स्म। ५. कल्पांहिप ५०, अ०। ६. शरदीवार्कः अ०। शरदेवाकों इ०, ५०, द०, स०, ल०। ७. इव । ८. अग्नेः। ९. आलिङ्गितः । १०. असदृशम् । ११. मुदिताः । १२. स्वर्गश्रेष्ठाः इन्द्रा इत्यर्थः। १३. स्तोत्रं कुर्महे । १४. स्तुतिव्याजात् । १५. विस्तारयामः । १६. द्रव्यभावकर्ममलम ।