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आदिपुराणम्
भूयोऽपि भगवानुगिरा मन्द्रगभीरया । आपप्रच्छे जगबन्धुबन्धूमिः स्नेहबन्धनः ।।१९३।। प्रशान्तेऽथ जनक्षोभं दूरं प्रोत्सारित जने । संगीतमङ्गलारम्भे सुप्रयुक्ते प्रगेतनें ॥ १९४ ॥ "मध्येयवनिकं स्थित्वा सुरेन्द्रे परिचारिणि । सर्वत्र समतां सम्यग्भावयन् शुभभावनः ।। १९५।। ब्युरसृष्टान्तर्बहिःसंगो नैस्संग्ये कृतसंगरः । वस्त्राभरणमाल्यानि व्यसृजन् मोहहानये ॥१९६॥ तदङ्गविरहाद्' भेजुर्विच्छायत्वं तदा भृशम् । दोप्राण्याभरणानि प्राक् स्थानभ्रंशे हि का द्युतिः ।। १९७।। दासीदास गवाश्वादि यत्किंचन" सचेतनम् । मणिमुक्ताप्रवालादि यच्च द्रव्यमचेतनम् ॥ १९८ ॥ तत्सर्वं त्रिभुर "त्याक्षी निर्व्यपेक्ष त्रिसाक्षिकम् । " निष्परिग्रहता मुख्यामास्थाय " व्रतभावनाम् ॥ १९९ ॥ ततः पूर्वमुखं स्थित्वा कृत सिद्धन मस्क्रियः । केशामलु ञ्चदाब पल्यङ्कः पञ्चमुष्टिकम् ॥ २०० ॥ "निल्युच्य " बहुमोहाग्रवल्लरी: केशवल्लरीः । जातरूपवरो धीरो जैनीं दीक्षामुपाददे || २०१ || कृस्स्नाद् विरम्य सावद्याच्छ्रितः सामायिकं यमम् । व्रतगुप्तिसमित्यादीन् तद्भेदानां दद्दे विभुः ॥ २०२॥ चैत्रे मास्यसिते पक्षे सुमुहूर्ते शुभोदये । नवम्यामुत्तराषाढे " सायाह्ने प्राव्रजद् विभुः ॥२०३॥
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और स्नेहरूपी बन्धन से रहित थे । यद्यपि वे दीक्षा धारण करनेके लिए अपने बन्धुवर्गोंसे एक बार पूछ चुके थे तथापि उस समय उन्होंने फिर भी ऊँची और गम्भीर वाणी-द्वारा उनसे पूछा-दीक्षा लेने की आज्ञा प्राप्त की ।।१९३।।
तदनन्तर जब लोगों का कोलाहल शान्त हो गया था, सब लोग दूर वापस चल गए थे, प्रातःकालके गम्भीर मंगलोंका प्रारम्भ हो रहा था और इन्द्र स्वयं भगवानकी परिचर्या कर रहा था तब जिन्होंने अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह छोड़ दिया है और परिग्रहरहित रहनेकी प्रतिज्ञा की है, जो संसारकी सब वस्तुओं में समताभावका विचार कर रहे हैं और जो शुभ भावनाओंसे सहित हैं ऐसे उन भगवान् वृषभदेव यवनिका के भीतर मोहको नष्ट करने के लिए वस्त्र, आभूषण तथा माला वगैरहका त्याग किया ।।१९४ - १९६ ।। जो आभूषण पहले भगवान्के शरीरपर बहुत ही देदीप्यमान हो रहे थे वे ही आभूषण उस समय भगवान के शरीर से पृथक हो जानेके कारण कान्तिरहित अवस्थाको प्राप्त हो गए थे सो ठीक ही है क्योंकि स्थानभ्रष्ट हो जानेपर कौन-सी कान्ति रह सकती है ? अर्थात् कोई भी नहीं || १९७ || जिसमें निष्परि ग्रहताकी ही मुख्यता है ऐसी व्रतोंकी भावना धारण कर, भगवान वृषभदेवने दासी, दास, गौ, बैल आदि जितना कुछ चेतन परिग्रह था और मणि, मुक्ता, मूँगा आदि जो कुछ अचेतन द्रव्य था उस सबका अपेक्षारहित होकर अपनी देवोंकी और सिद्धोंकी साक्षी पूर्वक परित्याग कर दिया था ।। १९८ - १९९ ।। तदनन्तर भगवान् पूर्व दिशाकी ओर मुँह कर पद्मासनसे विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठोको नमस्कार कर उन्होंने पंचमुष्टियों में केश लोंच किया ।। २०० ।। धीर वीर भगवान वृपभदेवने मोहनीय कर्मकी मुख्यलताओंके समान बहुत-सी केशरूपी लताओंका लोंच कर दिगम्बर रूपके धारक होते हुए जिनदीक्षा धारण की || २०१ || भगवानने समस्त पापारम्भसे विरक्त होकर सामायिक चारित्र धारण किया तथा त गुप्ति समिति आदि चारित्रके भेद ग्रहण किए । २०२ ।। भगवान वृषभदेवने चैत्र
१. मन्द्र शब्द । २. अर्थगम्भीरया । ३. सन्तोपमनयत् । ४. सुप्रगुप्ते इ० अ०, स० । ५. प्रभातसमये । ६. यवनिकायाः मध्ये । ७. निःसंगत्वं । ८. कृतप्रतिज्ञः । ९. वियोगाद् । १० दीप्तान्या - म०, ल० । ११. यत्किचिदधिचेतनम् अ० म०, इ०, स० ल० । १२. त्यक्तवान् । १३. आत्मदेवसिद्धसाक्षिकम् । १४. निःपरिग्रहता १०, अ० । १५. आश्रित्य । १६. 'लुचि केशापनयने' । १७. निर्लुञ्च्य प०, अ०, ८०, इ०, मञ्, ल० । लुञ्चनं कृत्वा । १८. मोहनीयाग्रवल्लरीसदृशाः । १९. नक्षत्रे । २०. अपराह्ने । २१. प्राव्रजत्प्रभुः अ०, प०, द०, इ० म०, ल०, स० ।