________________
३९४
आदिपुराणम् अवधूय चलां लक्ष्मी निर्धूय स्नेहबन्धनम् । धनं रज हवोधूय मुक्त्या संगंस्यते भवान् ॥२३५॥ राज्यलक्ष्म्याः परिम्लानि मुक्तिलक्षयाः परां मुदम् । प्रव्यअयं स्तपोलण्यामासजस्वं विना रतः॥२३६॥ राज्यश्रियां विरक्तोऽसि संरक्तोऽसि तपः श्रियाम् । मुक्तिश्रयांच सोत्कण्ठो गतैवं ते विरागता ॥२३७॥ ज्ञात्वा हेयमुपैयं च हित्वा हेयमिवाखिलम् । उपादेयमुपादित्सोः कथं ते समदर्शिता ॥२३८॥ पराधीनं सुखं हित्वा सुखं स्वाधीनमीप्सतः । त्यक्त्वाल्पां विपुलांचद्धि वाग्छतो विरतिःकते ॥२३९॥ "आमनन्त्यात्मविज्ञानं योगिनां हृदयं" परम् । कीटक तवात्मविज्ञानमात्मवत्पश्यतः परान् ॥२४०।। तथा परिचरन्त्येते यथा पूर्व सुरासुराः । स्वामुपास्ते च गूढं श्रीः "कुतस्स्यस्ते तपःस्मयः ॥२४१॥ नैसंगीमास्थि तश्चर्या सुखानुश यमप्यहन् । सुखीति कृतिमिदेव त्वं तथाप्यमिलप्यसे ॥२४२॥ "ज्ञानशक्तित्रयीमूढवा "विमित्सोः कर्मसाधनम्" । जिगीषुवृत्त मद्यापि तपोराज्ये तवास्त्यदः ॥२४३॥
मोहान्धतमसध्वंसे बोधित ज्ञानदीपिकाम्। स्वमादायचरो नैव क्लेशापाते प्रसीदसि ॥२४॥ विचार कर आपने अविनाशी मोक्षमार्गमें अपना मन लगाया है ।।२३४॥ हे भगवन्, आप चंचल लक्ष्मीको दूर कर स्नेहरूपी बन्धनको तोड़कर और धनको धूलिकी तरह उड़ाकर मुक्तिके साथ जा मिलेंगे ॥ २३५ ॥ हे भगवन् , आप रतिके बिना ही अर्थात् वीतराग होनेपर भी राजलक्ष्मीमें उदासीनताको और मुक्तिलक्ष्मीमें परम हर्पको प्रकट करते हुए तपरूपी लक्ष्मीमें आसक हो गये हैं, यह एक आश्चर्यकी बात है ।।२३६।। हे स्वामिन् , आप राजलक्ष्मीमें विरक्त हैं, तपरूपी लक्ष्मीमें अनुरक्त हैं और मुक्तिरूपी लक्ष्मीमें उत्कण्ठासे सहित हैं इससे मालूम होता है कि आपकी विरागता नष्ट हो गयी है। भावार्थ-यह व्याजोकि अलंकार है-इसमें ऊपरसे निन्दा मालूम होती है परन्तु यथार्थमें भगवानकी स्तुति प्रकट की गयी है ।।२३७॥ हे भगवन् , आपने हेय और उपादेय वस्तुओं को जानकर छोड़ने योग्य समस्त वस्तुओंको छोड़ दिया है
और उपादेयको आप ग्रहण करना चाहते हैं ऐसी दशामें आप समदर्शी कैसे हो सकते हैं ? (यह भी व्याजस्तुति अलंकार है)॥२३८ ॥ आप पराधीन सुखको छोड़कर स्वाधीन सुख प्राप्त करना चाहते हैं तथा अल्प विभूतिको छोड़कर बड़ी भारी विभूतिको प्राप्त करना चाहते हैं ऐसी हालतमें आपका विरति-पूर्ण त्याग कहाँ रहा ? (यह भी व्याजस्तुति है ) ॥ २३९ ।। हे नाथ ! योगियोंका आत्मज्ञान मात्र उनके हृदयको जानता है परन्तु आप अपने समान परपदार्थोंको भी जानते हैं इसलिए आपका आत्मज्ञान कैसा है ? ॥२४०॥ हे नाथ, समस्त सुर
और असुर पहलेके समान अब भी आपकी परिचर्या कर रहे हैं और यह लक्ष्मी भी गुप्त रीतिसे आपकी सेवा कर रही है तब आपके तपका भाव कहाँसे आया ? अर्थात् आप तपस्वी कैसे कहलाये ? ॥२४१॥ हे भगवन् , यद्यपि आपने निर्ग्रन्थ वृत्ति धारण कर सुख प्राप्त करनेका अभिप्राय भी नष्ट कर दिया है. तथापि कुशल पुरुष आपको ही सुखी कहते हैं ।। २४२ ।। हे प्रभो, आप मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानरूपी तीनों शक्तियोंको धारण कर कर्मरूपी शत्रुओंकी सेनाको खण्डित करना चाहते हैं इसलिए इस तपश्चरणरूपी राज्यमें आज भी आपका विजिगीषुभाव अर्थात् शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा विद्यमान है ॥ २४३ ॥ हे ईश,
१. घटिष्यते । २. राजलक्ष्म्याम् । ३. प्रव्यक्तीकुर्वन् । ४. आसक्तोऽभूः । ५. मुक्तिलक्ष्म्याम् म० ल० । ६. ज्ञाता मष्टा वा । ७. उपादेयम् । ८. उपादातुमिच्छोः । ९. वाञ्छतः। १०. कथयन्ति । ११. स्वरूप रहस्यं च । १२. राज्यकाले । १३. आराधयति । १४. कुत.आगतः । १५. तपोऽहंकारः । १६. आश्रितः । १७. सुखानुबन्धम् । १८. हंसि स्म। १९. मतिश्रुतावधिज्ञानशक्तित्रयम्, पक्षे प्रभमन्त्रोस्साहशक्तित्रयम् । २०. भेतुमिच्छोः । २१. ज्ञामावरणादिकर्मसेनाम्, पक्षे योद्धमारब्धादिसेनाम् । २२. वृत्तिः । २३. मोहनीयनीडान्धकारनाशार्थम् । २४. ज्वलिताम् । २५. गच्छन् । २६. नेश अ०,५०,३०, ८०, म०, स०,ल०। परन्नेश ल० । २७. कूटावपाते।