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आदिपुराणम् प्रलम्बितमहाबाहुदीप्र'प्रोत्तुङ्गविग्रहः । कल्पाघ्रिप इवावाशाखाद्वयपरिष्कृतः ॥१०॥ अलक्ष्येणातपत्रेण तपोमाहात्म्यजन्मना । कृतच्छायोऽप्यनिर्थिवादकृतेच्छ: परिच्छदं ॥११॥ पर्यन्ततरुशाखाप्रैर्मन्दानिलविधूनितैः । प्रर्कीर्णकैरिवायन विधूतविधुतक्लमः ॥१२॥ दीक्षानन्तरमुद्भूतमनःपर्ययबोधनः । चक्षुर्शानधरः श्रीमान् सान्तदीप इवालयः ॥१३॥ चतुर्भिरूर्जितै धेरमात्यरिव चर्चितम् । विलोकयन् विभुः कृत्स्नं परलोकगतागतम् ॥१४॥ यदेवं स्थितवान् देवः पुरुः परमनिःस्पृहः । तदामीषां नृपर्षीणां धृतेः' क्षोमो महानभूत् ॥१५॥ मासाद्वि त्राश्च नो यावत्तावत्ते मुनिमानिनः । परीषहमहावामिग्नाः सयो सृति जहुः ॥१६॥
अशक्ताः पदवीं गन्तुं गुरोरतिगरीयसीम् । त्यक्त्वाभिमानमिन्युच्चैर्जजल्पुस्त परस्परम् ॥१७॥ . अहो"धैर्यमहो स्थैर्यमहो जवाबलं प्रभोः । को नामैवमिनं मुक्त्वा कुर्यात् साहसमीरशम् ॥१८॥
कियन्तमथवा कालं तिष्ठेदेवमन्द्रितः । सोद्वा बाधाः क्षुधाद्युत्था गिरीन्द्र इव निश्चलः ॥१९॥ आदि) लेझ्याओंके अंश ही बाहरको निकल रहे हों ॥९॥ उनकी दोनों बड़ी-बड़ी भुजाएँ नीचेकी ओर लटक रही थीं और उनका शरीर अत्यन्त देदीप्यमान तथा ऊँचा था इसलिए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अग्रभागमें स्थित दो ऊँची शाखाओंसे सुशोभित एक कल्पवृक्ष ही हो ॥१॥ तपश्चरणके माहात्म्यसे उत्पन्न हुए अलक्षित ( किसीको नहीं दिखनेवाले) छत्रने यद्यपि उनपर छाया कर रखी थी तो भी उसकी अभिलापा न होनेसे वे उससे निर्लिप्त ही थे-अपरिग्रही ही थे । ।।११।। मन्द-मन्द वायुसे जो समीपवर्ती वृक्षांकी शाखाओंके अग्रभाग हिल रहे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो विना यत्नके डुलाये हुए. चमरोंसे उनका क्लेश ही दूर हो रहा हो ।।१२।। दीक्षाके अनन्तर ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था इसलिए मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञानोंको धारण करनेवाले श्रीमान् भगवान ऐसे जान पड़ते थे मानो जिसके भीतर दीपक जल रहे हैं ऐसा कोई महल ही हो ।।१३।। जिस प्रकार कोई राजा मन्त्रियोंके द्वारा चर्चा किये जानेपर परलोक अर्थात शत्रुओंके सब प्रकार. के आना-जाना आदिको देख लेता है-जान लेता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव भी अपने सुदृढ़ चार ज्ञानोंके द्वारा सब जीवोंके परलोक अर्थात् पूर्वपरपर्यायसम्बन्धी आना-जाना आदिको देख रहे थे-जान रहे थे ॥१४॥ इस प्रकार भगवान् वृषभदेव जब परम निःस्पृह होकर विराजमान थे तब कच्छ महाकच्छ आदि राजाओंके धैर्य में बड़ा भारी भोभ उत्पन्न होने लगा-उनका धैर्य छूटने लगा ॥१५॥ दीक्षा धारण किये हुए दो तीन माह भी नहीं हुए थे कि इतने में ही अपनेको मुनि माननेवाले उन राजाओंने परीपहरूपी वायुसे भग्न होकर शीघ्र ही धैर्य छोड़ दिया था ॥१६।। गुरुदेव-भगवान वृषभदेवके अत्यन्त कठिन मार्गपर चलने में असमर्थ हुए वे कल्पित मुनि अपना-अपना अभिमान छोड़कर परस्परमें जोर-जोरसे इस प्रकार कहने लगे ॥१७॥ कि, अहा आश्चर्य है भगवानका कितना धैर्य है, कितनी स्थिरता है और इनकी जंघाओंमें कितना बल है ? इन्हें छोड़कर और दूसरा कौन है जो ऐसा साहस कर सके ? ||१८|| अब यह भगवान इस तरह आलस्यरहित होकर श्रधा आदिसे उत्पन्न हुई बाधाओंको सहते हुए निश्चल पर्वतकी तरह और कितने समय तक खड़े रहेंगे ॥१९||
१. दीप्त-म०, ल० । २. कल्पांडिप इवा-। ३. इबोच्चाग्र-अ०, म०, ल.। अवनतशाखाद्वयालं. कृत । ४. वाञ्छारहितत्वात् । ५. दक्षतेच्छः म०, ल०। ६. विद्युतैः म०, ल०। ७. विनाशितश्रमः । ८. निरूपितम् । ९. उत्तरगतिगमनागमनम, पले शत्रजनगमनागमनम् । १०. कच्छादीनाम् । ११. धैर्यस्य । १२. द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः। १३. न भवन्ति । १४. धैर्यम् । १५. मनोबलम् ।