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सप्तदशं पर्व महारकवरीभृष्टिः कर्मणोऽष्टतयस्य या। तां प्रति प्रज्वलस्यैषा वयानाग्निशिखोच्छिखा ॥२४५॥ इष्टतत्त्व वरीवृष्टिः कर्माष्टकवनस्य या । तत्रोक्षिसा कुठारीयं रत्नत्रयमयी स्वया ॥२४६॥ ज्ञानवैराग्यसंपत्तिस्तषानन्यगोचरा । विमुक्तिसाधनायालं भक्तानां च भवाच्छिदं ॥२४॥ इति स्वार्था परायां च बोधसंपदमूर्जिताम् । दधतऽपि नमस्तुभ्यं विरागाय गरीयसे ॥२४॥ इत्यभिष्टुत्य नाकीन्द्राः प्रतिजग्मुः स्वमास्पदम् । तद्गुणानुस्मृति पूतामादाय स्वेन चेतसा ॥२४॥ ततो भरतराजोऽपि गुरुं भक्तिमरानतः । पूजयामास लक्ष्मीवान उच्चावचत्रचःस्रजा ॥२५०॥
_____मालिनीच्छन्दः । अथ भरतनरेन्द्रो रुन्द्रभक्त्या मुनीन्द्रं "समधिगतसमाधि सावधानं स्वसाध्ये । सुरभिसलिलधारागन्धपुष्पाक्षताये रयजत जितमोहं सप्रदीपैश्च धूपैः ॥२५१॥ 'परिणतफलभेदैराम्रजम्यूकपित्थैः पनसलकुचमोचे दाडिमैर्मातुलुमः ।। क्रमुकरचिरगुच्छे रिकलश्च रम्यः गुरुचरणसपर्यामातनोदाततश्रीः ॥१२॥ कृतचरणसपर्यो भक्तिनम्रण मूर्ना धरणिनिहित जानुः प्रोद्गतानन्दवाप्पः । प्रणतिमतनुतोच्चमौलिमाणिक्यरश्मिप्रविमलसलिलोधः क्षालयन्मनुरी ॥२५॥ आप मोहरूपी गाढ़ अन्धकारको नष्ट करनेके लिए प्रकाशमान ज्ञानरूपी दीपकको लेकर चलते हैं इसलिए आप क्लेशरूपी गदेमें पड़कर कभी भी दुःखी नहीं होते ।।२४४॥ हे भट्टारक, ज्ञानावरणादि आठ काँकी जो यह बड़ी भारी भट्ठी बनी हुई है उसमें यह आपकी ध्यानरूपी अग्निकी ऊँची शिखा खूब जल रही है ॥२४५।। हे समस्त पदार्थोंको जाननेवाले सर्वज्ञ देव, जो यह हरा-भरा आठों कर्मोंका वन है उसे नष्ट करनेके लिए आपने यह रत्नत्रयरूपी कुल्हाड़ी उठायी है ।।२४६॥ हे भगवन , किसी दूसरी जगह नहीं पायी जानेवाली आपकी यह ज्ञान और वैराग्यरूपी सम्पत्ति ही आपको मोक्ष प्राप्त करानेके लिए तथा शरणमें आये हुए भक्त पुरुषोंका संसार नष्ट करनेके लिए समर्थ साधन है ॥२४॥ हे प्रभो, इस प्रकार आप निज परका हित करनेवाली उत्कृष्ट ज्ञानरूपी सम्पत्तिको धारण करनेवाले हैं तो भी परम वीतराग हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ।।२४८।। इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र लोग भगवान्के गुणोंकी पवित्र स्मृति अपने हृदय में धारण कर अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।।२४९।। तदनन्तर लक्ष्मीवान महाराज भरतने भी भक्तिके भारसे अतिशय नम्र होकर अनेक प्रकारके वचनरूपी मालाओंके द्वारा अपने पिताकी पूजा की अर्थात् सुन्दर शब्दों द्वारा उनकी स्तुति की ।।२५०।। तत्पश्चात् उन्हीं भरत महाराजने बड़ी भारी भक्तिसे सुगन्धित जलकी धारा, गन्ध, पुष्प, अक्षत, दोप, धूप और अय॑से समाधिको प्राप्त हुए (आत्मध्यानमें लीन ) और मोक्षप्राप्तिरूप अपने कार्यमें सदा सावधान रहनेवाले, मोहनीय कर्मके विजेता मुनिराज भगवान् वृषभदेवकी पूजा की ।।२५१|तथा जिनकी लक्ष्मी बहुत ही विस्तृत है ऐसे राजा भरतने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कथा, कटहल, वडहल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियोंके सुन्दर गुच्छे और नारियलोंसे भगवान के चरणोंकी पूजा की थी ॥२५२।। इस प्रकार जो भगवानके चरणोंकी पूजा कर चुके हैं, जिनके दोनों घुटने पृथिवीपर लगे हुए हैं और जिनके नेत्रोंसे हर्षके आँसू निकल रहे हैं ऐसे राजा भरतने अपने उत्कृष्ट मुकुटमें लगे हुए मणियोंकी किरणेंरूप स्वच्छ जलके
१. पूज्यः । २. भ्रस्ज पाके, अतिपाकः । ३. 'ओवश्च छेदने' । अतिशयन छेदनम। ४. भवच्छिदे म०, ल० । ५. स्वप्रयोजनाम् । ६. नानाप्रकार । ७. संप्राप्तध्यानम् । ८. पूजाद्रव्यः । ९. अपूजयत् । १०. पक्व । ११. कदली । १२. मातृलिङ्गः अ०, ५०, द०. म०. स०, इ०, ल० । १३. निःक्षिप्त ।