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आदिपुराणम् प्रस्थानमाले 'जातं 'नाभिजातं प्ररोदनम् । नायः शनैरनुब्राज्यो मातर्मा स्म शुचं गमः ॥१७॥ स्वर्यतां चर्यता देवि शोकवेगोऽपवार्यताम् । देवोऽयं नीयते देवैःदिष्टयास्मष्टिगोचरे ॥११॥ इस्यन्तःपुरवृद्धामिर्मुहुराश्वासिता सती । यशस्वती सुनन्दा च प्रतस्थे पादचारिणी ॥१७२॥ बहुनात्र किमुक्तन मुक्तसर्वपरिच्छदाः । देग्यो यथाश्रुतं मर्तुरनुमार्ग प्रतस्थिरे ॥१७३॥ मा भूद् ब्याकुलता काचित् भर्तुरित्यनुयायिमिः । रुन्दः सर्वावरोध स्त्रीसार्थः कस्मिंश्चिदन्तरं॥१७॥ ब्रुवाणैर्भ राज्ञेति राज्ञोवर्गो महत्तरैः । संरुद्धः सरितामोघः प्रवृद्धोऽपि यथार्णवैः ॥१७५॥ निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च निन्दन् सौभाग्यमात्मनः । न्यवृतत् प्राप्तनैराश्यो नृपवल्लभिकाजनः ॥१६॥ महादेव्यौ तु "शुद्धान्तमुख्याभिः परिवारिते । मरिच्छानुवर्तिन्यावन्वयाता सपर्यया ॥३७७॥ मरुदेव्या समं नाभिराजो राजशतैर्वृतः । अनुत्तस्थौ तदा द्रष्टुं विभोनिष्क्रमणोत्सवम् ॥१७॥ समं पौरैरमात्यैश्च पार्थिवैश्च महान्वयः । सानुजो मरताधीशो महा "गुरुमन्वयात् ॥१९॥ नातिदूरं खमुत्पत्य जनानां दृष्टिगोचरे । यथोक्तैर्मङ्गलारम्भैः प्रस्थानमकरोत् प्रभुः ॥१०॥
नातिदूरे पुरस्यास्य नात्यासन्नेतिविस्तृतम् । सिद्धार्थकवनोदेशमभिप्राया' ज्जगद्गुरुः॥१८१॥ द्वारा किये हुए सम्मानसे ही) सन्तुष्ट हो गयी थीं इसलिए वे पतिव्रताएँ बिना किसी आकुलताके भगवानके पीछे-पीछे जा रही थीं ॥१६९।। हे माता, यह भगवानका प्रस्थानमंगल हो रहा है इसलिए अधिक रोना अच्छा नहीं, धीरे-धीरे स्वामीके पीछे-पीछे चलना चाहिए । शोक मत करो ॥१७०।। हे देवि, शीघ्रता करो, शीघ्रता करो, शोकके वेगको रोको, यह देखो देव लोग भगवानको लिये जा रहे हैं अभी हमारे पुण्योदयसे भगवान हमारे दृष्टिगोचर हो रहे हैं हम लोगोंको दिखाई दे रहे हैं ॥१७१।। इस प्रकार अन्तःपुरकी वृद्ध स्त्रियों के द्वारा समझायी गयी यशस्वती और सुनन्दा देवी पैदल ही चल रही थीं ॥१७२।। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है उन देवियोंने ज्यों ही भगवानके जानेके समाचार सुने त्यों ही उन्होंने अपने छत्र चमर आदि सब परिकर छोड़ दिये थे और भगवानके पीछे-पीछे चलने लगी थीं ॥१७३।। भगवान्को किसी प्रकारकी व्याकुलता न हो यह विचारकर उनके साथ जानेवाले वृद्ध पुरुषोंने यह भगवान्की आज्ञा है, ऐसा कहकर किसी स्थानपर अन्तःपुरकी समस्त स्त्रियोंके समूहको रोक दिया और जिस प्रकार नदियोंका बढ़ा हुआ प्रवाह समुद्रसे रुक जाता है उसी प्रकार वह रानियोंका समूह भी वृद्ध पुरुषों (प्रतीहारों) से रुक गया था ॥१७४-१७५॥ इस प्रकार रानियोंका समूह लम्बी और गरम साँस लेकर आगे जानेसे बिलकुल निराश होकर अपने सौभाग्यकी निन्दा करता हुआ घरको वापस लौट गया ॥ १६ ॥ किन्तु स्वामीकी इच्छानुसार चलनेवाली यशस्वती और सुनन्दा ये दोनों ही महादेवियाँ अन्तःपुरकी मुख्य-मुख्य स्त्रियोंसे परिवृत होकर पूजाकी सामग्री लेकर भगवानके पीछे-पीछे जा रही थीं ।।१७७।। उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवी तथा सैकड़ा राजाआंसे परिवृत होकर भगवानके तपकल्याणका उन देखनेके लिए उनके पीछे-पीछे जा रहे थे ।।१७८|| सम्राट् भरत भी नगरनिवासी, मन्त्री, उच्च वंशमें उत्पन्न हुए राजा और अपने छोटे भाइयोंके साथ-साथ बड़ी भारी विभूति लेकर भगवान्के पीछे-पीछे चल रहे थे।।१७९।। भगवान्ने आकाशमें इतनी थोड़ी दूर जाकर कि जहाँ से लोग उन्हें अच्छी तरहसे देख सकते थे, ऊपर कहे हुए मंगलारम्भके साथ प्रस्थान किया ॥१८०।। इस प्रकार जगद्गुरु भगवान वृषभदेव अत्यन्त विस्तृत सिद्धार्थक नामके वनमें जा पहुँचे वह
१. जाते अ०,१०, इ०, स०, द०, म०, ल० । २. अमङ्गलम् । ३. गम्यताम् । ४. वेगोऽवधीयताम् प०, म०, द०, इ०, ल.धार्यताम् अ., स०। ५. त्यक्तच्छत्रचामरादिपरिकराः। ६. यथाकणितं तथा । ७., भतुःसकाशात् । ८. सहगच्छद्भिः । ९. अन्वःपुरस्त्रीसमूह । १०. प्रवाहः । ११. अन्तःपुरमुख्याभिः । १२. अन्वगच्छताम् । १३. अन्वगच्छत् । १४.-मन्वगात् अ०, ५०, म०, ल०, । १५. अन्वगच्छत् ।