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सप्तदशं पर्वा अथ संप्रस्थिते देवे देख्योऽमात्यैरधिष्ठिताः' । अनुप्रचेलुरीशानं शुचान्तर्वाष्पलोचनाः ॥१५९॥ लता इव परिम्लानगात्रशोमा विभूषणाः । काश्चित् स्खलत्पदन्यासमनजरमर्जगरपतिम ॥१६॥ शोकानिलहताः काश्चिद् वेप मानाङ्गयष्टयः । निपेतुधरणीपृष्ठे मूर्छामीलितलोचनाः ॥१६१॥ क्व प्रस्थितोऽसि हा नाथ क्व गत्वास्मान् प्रतीक्षसे । कियहरं च गन्तव्यमित्यन्या मुमुहुर्मुहुः ॥१६२॥ हृदि वेपथुमुकम्पं स्तनयोलानता तनौ । वाचि गद्गदतामक्ष्णोर्बाष्पं चान्याः शुचा दधुः ॥१६३॥ अमङ्गलमलं बाले रुदित्वेति निवारिता । काचिदन्तनिरुद्धाश्रुः स्फुटन्तीव शुचाभवत् ॥१६४॥ प्रस्थानमङ्गलं मक्तुमक्षमाः काप्युदश्रुदृक् । 'शुचमन्तःप्रविष्टेव दृष्ट्वा दृक्पुत्रिकाछलात् ॥१६॥ गतिसंभ्रमविच्छिमाहारन्याकीणमौक्तिकाः । स्थूलानश्रलवान् काश्चिच्छन्नं तच्छन्द्रनामुचन् ॥१६६ विसस्तकबरीमारविगलस्कुसुमस्रजः । स्वस्तस्तनांशुकाः सानाः काश्चिच्छोच्यां दशामधुः ॥१६॥ "उक्षिप्य शिबिकास्वन्या निक्षिप्ताः शोकविक्लवाः । कथंकथमपि प्राणेनंव्ययुज्यन्त सास्विताः ॥१६॥ धीराः काश्चिदधीराक्ष्यो धीरिताः स्वामिसंपदा । विभुमन्वीयुरम्यग्रा राजपरन्यः "शुचिव्रताः ॥१६९॥ ___ अथानन्तर भगवान्के प्रस्थान करनेपर यशस्वती आदि रानियाँ मन्त्रियोंसहित भगवान्के पीछे-पीछे चलने लगी, उस समय शोकसे उनके नेत्रों में आँसू भर रहे थे ।।१५९।। लताओंके समान उनके शरीरकी शोभा म्लान हो गयी थी, उन्होंने आभूषण भी उतारकर अलग कर दिये थे और कितनी ही डगमगाते पैर रखती हुई भगवान्के पीछे-पीछे जा रही थीं ॥१६०।। कितनी ही स्त्रियाँ शोकरूपी अग्निसे जर्जरित हो रही थीं, उनकी शरीरयष्टि कम्पित हो रही थी और नेत्र मूच्छासे निमीलित हो रहे थे इन सबकारणांसे वे जमीनपर गिर पड़ी थीं ॥१६॥ कितनी ही देवियाँ बार-बार यह कहती हुई मूपिछत हो रही थीं कि हा नाथ, आप कहाँ जा रहे हैं ? कहाँ जाकर हम लोगोंकी प्रतीक्षा करेंगे और अब आपको कितनी दूर जाना है ॥१६२।। वे देवियाँ शोकसे हृदयमें धड़कनको, स्तनोंमें उत्कम्पको, शरीरमें म्लानताको, वचनोंमें गद्गदताको और नेत्रों में आँसुओंको धारण कर रही थीं ॥१६३।। हे बाले, रोकर अमंगल मत कर इस प्रकार निवारण किये जानेपर किसी स्त्रीने रोना तो बन्द कर दिया था परन्तु उसके
आँसू नेत्रोंके भीतर ही रुक गये थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो शोकसे फूट रही हो ॥१६४॥ कोई स्त्री प्रस्थानकालके मंगलको भंग करनेके लिए असमर्थ थी इसलिए उसने
आँसुओंको नीचे गिरनेसे रोक लिया परन्तु ऐसा करनेसे उसके नेत्र आँसुओंसे भर गए थे जिससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रोंकी पुत्तलिकाके छलसे शोकके भीतर ही प्रविष्ट हो गयी हो ॥१६५।। वेगसे चलनेके कारण कितनी ही स्त्रियोंके हार टूट गये थे और उनके मोती विखर गये थे, उन विखरे हुए मोतियोंसे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो मोतियोंके छलसे
आँसुओंकी बड़ी-बड़ी बूंदें ही छोड़ रही हों ।।१६।। कितनी ही स्त्रियोंके केशपाश खुलकर. नीचेकी ओर लटकने लगे थे उनमें लगी हुई फूलोंकी मालाएँ नीचे गिरती जा रही थीं, उनके स्तनोंपर के वस्त्र भी शिथिल हो गये थे और आँखोंसे आँसू बह रहे थे इस प्रकार वे शोचनीय अवस्थाको धारण कर रही थीं ॥१६॥ कितनो ही स्त्रियाँ शोकसे अत्यन्त विह्वल हो गयी थीं इसलिए लोगोंने उदाकर उन्हें पालकीमें रखा था तथा अनेक प्रकारसे सान्त्वना दी थी, समझाया था। इसीलिए वे जिस किसी तरह प्राणोंसे वियुक्त नहीं हुई थीं-जीवित बची थीं॥१६८।। धीर वीर किन्तु चंचल नेत्रोंवाली कितनी ही राजपत्नियाँ अपने स्वामीके विभवसे हो ( देवों
१. अमात्यराश्रिताः। २. विगतभूषणाः । ३. कम्पमान। ४ इषन्मीलित । ५. मच्छी गतः । ६ कम्पनम् । ७. अलं रुदित्वा रोदनेनालम् । ८. नाशितुम् । ९. शुवमन्तःप्रविष्टेव दृष्टा त । शुचामन्तः प्रविष्टेव दृष्टा द०, म०, ल० । १०. गूढं यया भवति तथा । ११. मौक्तिकव्याजेन । १२. अथुमहिताः । १३. उद्धृत्य । १४. विह्वला । १५. प्रियवचनैः सन्तोपं नीताः । १६. पवित्र ।