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आदिपुराणम्
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यदा प्रभृति देवोयमवतीर्णो धरातलम् । तदा प्रभृति देवानां न गत्यागतिविच्छिदा ॥१४८॥ नृत्यं नीलाञ्जनाख्यायाः पश्यतः सुरयोषितः । उपादि विभोभोगिवैराग्यमनिमित्तकम् ॥१४९॥ तत्कालोपन तैर्मान्यः सुरैलौ कान्तिकाह्वयैः । बोधितस्यास्य वैराग्ये दृढमासञ्जितं मनः ॥ १५० ॥ विरक्तः कामभोगेषु स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । सवस्तुवाहनं राज्यं तृणवन्मन्यतेऽधुना ॥ १५१ ॥ मतङ्गज इत्र स्वैरविहारसुख लिप्सया । "प्रविविक्षुर्वनं देवः सुरैः प्रोत्साहय नीयते ।। १५२ ।। स्वाधीनं सुखमस्येत्र वनेऽपि वसतः प्रभोः । प्रजानां ओमष्टस्यै च पुत्रौ राज्य निवेशितौ ।। १५३ ।। तदियं प्रस्तुता यात्रा भूयाद् मर्तुः सुखावहा । 'दिष्ट्यायं वर्धतां लोको विषीदन्मा हम कश्चन ॥ १५४ ॥ सुचिरं जीवताद्देवो जयतादभिनन्दतात् । "प्रत्यावृत्तः पुनश्चास्मान् अक्षता' 'स्माभिरक्षतात् ॥ १५५ ॥ दीयतेऽद्य महादानं मरतेन महात्मना । विभोराज्ञां समासाद्य जगदाश प्रपूरणम् ॥ १५६ ॥ वितीर्णेनामुना भूयादतिश्चामीकरेण' व ' । दीयन्तेऽश्वाः स' "हायोग्यैरितश्चामीकरेणवः ' ' ।१ इत्युन्मुग्धैः प्रबुद्धैश्च जनालापैः पृथग्विधैः । इलाध्यमानः शनैर्नाथः पुरोपान्तं व्यतीयिवान् ॥ १५८ ॥ निवासी लोग भगवान् के उस आश्चर्य ( अतिशय ) को देखकर विस्मय के साथ यथेच्छ बातें कर रहे थे ||१४७|| अनेक पुरुष कह रहे थे कि जबसे इन भगवानने पृथिवी तलपर अवतार लिया है तबसे यहाँ देवोंके आने-जाने में अन्तर नहीं पड़ता-बराबर देवोंका आना-जाना बना रहता है || १४८ || नीलांजना नामकी देवांगनाका नृत्य देखते-देखते ही भगवान्को बिना किसी अन्य कारणके भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न हो गया है || १४९ ॥ उसी समय आये हुए माननीय लौकान्तिक देवोंने भगवानको सम्बोधित किया जिससे उनका मन वैराग्यमें और भी अधिक दृढ़ हो गया है || १५० || काम और भोगोंसे विरक्त हुए भगवान् अपने शरीर में भी निःस्पृह हो गये हैं अब वे महल सवारी तथा राज्य आदिको तृणके समान मान रहे हैं ।। १५१ ।। जिस प्रकार अपनी इच्छानुसार विहार करने रूप सुखकी इच्छासे मत्त हाथी वनमें प्रवेश करता है. उसी प्रकार भगवान् वृपभदेव भी स्वातन्त्र्य सुख प्राप्त करनेकी इच्छासे वनमें प्रवेश करना चाहते हैं और देव लोग प्रोत्साहित कर उन्हें ले जा रहे है ।।१५२।। यदि भगवान् वनमें भी रहेंगे तो भी सुख उनके अधीन ही है और प्रजाके सुखके लिए उन्होंने अपने पुत्रोंको राज्यसिंहासनपर बैठा दिया है || १५३ || इसलिए भगवान्की प्रारम्भ की हुई यह यात्रा उन्हें सुख देनेवाली हो तथा ये लोग भी अपने भाग्यसे वृद्धिको प्राप्त हों, कोई विषाद मत करो || १५४ || अक्षतात्मा अर्थात् जिनका आत्मा कभी भी नष्ट होनेवाला नहीं है ऐसे भगवान् वृषभदेव चिर कालतक जीवित रहें, विजयको प्राप्त हों, समृद्धिमान हों और फिर लौटकर हम लोगोंकी रक्षा करें || १५५ || महात्मा भरत आज त्रिभुकी आज्ञा लेकर जगत्की आशाएँ पूर्ण करनेवाला महादान दे रहे हैं ।। १५६ ।। इधर भरतने जो यह सुवर्णका दान दिया है उससे तुम सबैको सन्तोष हो, इधर पलानोंसहित घोड़े दिये जा रहे हैं और इधर ये हाथी वितरण किये जा रहे हैं || १५७|| इस प्रकार अजान और ज्ञानवान सब हो अलग-अलग प्रकारके वचनों द्वारा जिनकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे भगवान वृपभदेवने धीरे-धीरे नगर के बाहर समीपवर्ती प्रदेशको पार किया || १५८ ||
१. गत्यागम - प० अ०, इ०, द०, म०, स०, ल०। गमनागमन विच्छिदः । २. आगतैः । ३. संयोजितम् । ४. सवास्तुवाहनं प० म० द०, ल० । 'न वस्तु वाहनं' इत्यपि वचनं क्वचित् । ५. प्रवेशमिच्छः । ६. क्षेमवत्यै अ०, प०, इ०, ८०, स०, म०, ल० । ७. तत् कारणात् । ८. संतोषेण । ८. लङ् मा स्म योगादानिपेधः । १०. व्यावृत्य गतः । ११. समाधिरक्ष-म० ल० । १२. भूतिश्चामी - प० द० । वृत्तिश्चा मी- अ०, इ०, स० । १३. सुवर्णेन । १४. युष्माकम् । १५. पल्ययनैः परिमाणैरित्यर्थः । सहयोग - म०, ल० । १६. दन्तिनः ।