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आदिपुराणम् भुजयोः शोभयादीप्रकटकाङ्गदभूषया । निर्भर्ल्सयन फणीन्द्राणां फणारत्नरुचां चयम् ॥१२३॥ काञ्चीदामपरिक्षिप्तजघनस्थललीलया । स्वीकुर्वन् वेदिका रुद्वजम्बू द्वीपस्थलश्रियम् ॥१२४॥ 'क्रमोपधानपर्यन्त लसत्पदनखांशुभिः । प्रसादांशैरिवाशेषं पुनानः प्रणतं जनम् ॥१२५॥ न्य कृतार्करुचा स्वाङ्गदीप्त्या व्याप्तककुम्मुखः । स्वेनौजसाधरीकुर्वन् सर्वान् गीर्वाणनायकान् ॥१२६॥ इति प्रत्यङगसहिगन्या नैःसङग्याचितया श्रिया। निर्वासयनिवासगं चिर कालोपलालितम् ॥१२७॥ वितेन सितच्छत्रमण्डलेनामलस्विषा । विधुनेवोपरिस्थेन सेव्यमानः क्लमच्छिदा ॥१२८॥ प्रकीर्णकप्रतानेन विधुतेनामरेश्वरैः । 'जन्मोत्सवक्षणप्रीत्या क्षीरोदेनेव सेवितः ॥१२९॥ इत्याविष्कृतमाहात्म्यः सुरेन्द्रः परितो वृतः । पुरुः पुराद् विनिष्क्रान्तः पौररित्यभिनन्दितः ॥१३०॥ व्रज सिद्धय जगनाथ शिवः पन्थाः समस्तु ते । निष्टितार्थः पुनर्देव-रम्पथे नो भवाचिरात् ॥१३॥ नाथानाथं जनं त्रातुं नान्यस्त्वमिव कर्मठः । तस्मादस्मत्परित्राणे प्रणिधेहि मनः पुनः ॥१३२॥ परानुग्रहकाराणि चेष्टितानि तव प्रभो । नियंपेक्षं विहायास्मान् कोऽनुग्राहयस्त्वयापरः ॥१३३|| इति इलाध्यं प्रसन्नं च "सानुतर्ष सनाथनम् । कैश्चित् संजल्लितं पौरैरारात् प्रणतमूर्द्धभिः ।।१३।।
श्रयं स भगवान् दरं देवरुरिक्षप्य नीयते । न विद्मः कारणं ''किन्न क्रीडयमथवेदशी ।।१३५।। मान होती हुई पैरोंकी किरणोंसे वे भगवान ऐसे मालूम होते थे मानो नमस्कार करते हुए सम्पूर्ण लोगोंको अपनी प्रसन्नताके अंशोंसे पवित्र ही कर रहे हों। उस समय सूर्यकी कान्तिको भी तिरस्कृत करनेवाली अपने शरीरकी दीप्तिसे जिन्होंने सब दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं ऐसे भगवान वृषभदेव अपने ओजसे समस्त इन्द्रोंको नीचा दिखा रहे थे । इस प्रकार प्रत्येक अंग-उपांगोंसे सम्बन्ध रखनेवाली वैराग्यके योग्य शोभासे वे ऐसे जान पड़ते मानो चिरकालसे पालन-पोषणकी हुई परिग्रहकी आसक्तिको ही बाहर निकाल रहे हों। ऊपर लगे हुए निर्मल कान्तिवाले सफेद छत्रके मण्डलसे वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो क्लेशोंको दूर करनेवाला चन्द्रमा ही ऊपर आकर उनकी सेवा कर रहा हो। इन्द्रोंके द्वारा दुलाये हुए चमरोंके समूहसे भगवान् ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो जन्मकल्याणकके क्षण-भरके प्रेमसे क्षीरसागर ही आकर उनकी सेवा कर रहा हो। इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा है और अनेक इन्द्र जिन्हें चारों ओरसे घेरे हुए हैं ऐसे वे भगवान् वृषभदेव अयोध्यापुरीसे बाहर निकले। उस समय नगरनिवासी लोग उनकी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे ॥११५-१३०।। हे जगन्नाथ, आप कार्यकी सिद्धिके लिए जाइए, आपका मार्ग कल्याणमय हो और हे देव, आप अपना कार्य पूरा कर फिर भी शीघ्र ही हम लोगोंके दृष्टिगोचर होइए ॥१३शा हे नाथ, अनाथ पुरुपोंकी रक्षा करनेके लिए आपके समान और कोई भी समर्थ नहीं है इसलिए हम लोगोंकी रक्षा करनेमें आप अपना मन फिर भी लगाइए ।।१३२।। हे प्रभो, आपकी समस्त चेष्टाएँ पुरुषोंका उपकार करनेवाली होती हैं, आप बिना कारण ही हम लोगोंको छोड़कर अब और किसका उपकार करेंगे ? ॥१३३।। इस प्रकार कितने ही नगरनिवासियोंने दूरसे ही मस्तक झुकाकर प्रशंसनीय. स्पष्ट अर्थको कहनेवाले और कामनासहित प्राथनाक वचन कहे थे।। १३४।। उस समय कितने ही नगरवासी परस्परमें ऐसा कह रहे थे कि देव लोग भगवानको पालक
१. दीप्त-द०, स०, ६०, ल०, म० । २. चरणकूर्याससमीप । ३. पर्यन्तोल्लस-ल०, म०, द०. स०,०। ४. अधःकृत । ५. कुब्मुम्ब: म०,५०, ल०। ६. निष्कासयन् प्रेषयन्निव । ७. परिग्रहम् आसक्ति वा। ८. प्रेषणकाले आलिंगनपूर्वकं प्रेषयन्ति तावच्चिरकालोपलालितानाभरणाद्यासंगात्तत्पूर्वकं प्रेषयन्निव प्रत्यङ्गसंगतराभरणैर्भातीत्यर्थः । ९. ग्लानि । १०. विधूतना-म०, ल०। ११. जन्माभिपेकसमय। १२. निष्पन्नप्रयोजनः सन् । १३. अस्माकम् । १४. कर्मशूराः । १५. परिरक्षणे। १६. एकाग्रं कुरु । १७. वाञ्छा. सहितम् । सानुकर्ष अ०, स० । १८. प्रार्थनासहितम् । १९. किन्तु प०, १०, म०, ल.।