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आदिपुराणम् तदा विचकरुः पुष्पवर्षमामोदि गुणकाः । ववौ मन्दाकिनीसीकराहारः शिशिरो मरुत् ॥१०॥ प्रस्थाममङ्गलान्युच्चैः संपेतुः सुरवन्दिनः । तदा प्रयाणभेर्यश्च विध्वगास्फालिताः सुरैः ॥१०२॥ मोहारिविजयोद्योगसमयोऽयं जगद्गुरोः । इत्युच्चै!षयामासुस्तदा शक्राज्ञयाऽमराः ॥१०३॥ जयकोलाहलं भर्तुरने हृष्टाः सुरासुराः । तदा चक्रुर्नमोऽशेषमारुध्य प्रमदोदयात् ॥१०॥ तदा मङ्गलसंगीतैः प्रकृतैर्जयघोषणैः । नमो महानकध्वानैरारुबं शब्दसादभूत् ॥१०५॥ देहोद्योतस्तदेन्द्राणां नमः कृत्स्नमदितत् । दुन्दुभीनां च निर्बादी ध्वनिर्विश्वमदिभ्वनत् ॥१०६॥ सुरेन्द्रकरविक्षिप्तैः प्रचलनिरितोऽमुतः । तदा हंसायितं न्योम्नि चामराणां कदम्बकः ॥१०७॥ ध्वनन्तीषु नमो व्याप्य सुरेन्द्रानककोटिषु । कोटिशः सुरचेटानां करकोशामिताडनैः ॥१०॥ नटन्तीषु नमोरङ्गे सुरस्त्रीषु सविभ्रमम् । विचित्रकरणोपे तच्छत्रपधादिकाधवैः ॥१०९॥ गायन्तीषु सुकण्ठीषु किसरीषु कलस्वनम् । श्रवःसुखं च हृयं च परिनिःक्रमणोत्सवम् ॥११०॥ मङ्गलानि पठत्सच्चैः सुरवं सुरवन्दिषु । तत्कालोचितमन्यच्च वचश्चेतोऽनुरञ्जनम् ॥१११॥
"भूतेषद्भूतहर्षेषु चित्रकेतनधारिषु । नानालास्यैः प्रधावत्सु ससंघर्षमितोऽमुतः ॥११२॥ उनकी पालकी ले जानेवाले हुए थे अर्थात् इन्द्र स्वयं उनकी पालकी ढो रहे थे॥१००। उस समय यक्ष जातिके देव सुगन्धित फूलोंकी वर्षा कर रहे थे और गंगानदीके जलकणोंको धारण करनेवाला शीतल वायु बह रहा था ।।१०१।। उस समय देवोंके वन्दीजन उच्च स्वरसे प्रस्थान समयके मंगलपाठ पढ रहे थे और देव लोगचारों ओर प्रस्थानसूचक भेरियाँ बजा रहे थे॥१०२।। उस समय इन्द्रकी आज्ञा पाकर समस्त देव जोर-जोरसे यही घोषणा कर रहे थे कि जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवका मोहरूपी शत्रुको जीतनेके उद्योग करनेका यही समय है ॥१०३॥ उस समय हर्षित हुए सुर असुर जातिके सभी देव आनन्दकी प्राप्तिसे समस्त आकाशको घेरकर भगवान्के आगे जय जय ऐसा कोलाहल कर रहे थे ॥१०४।। मंगलगीतों, बार-बार की गयी जय-घोषणाओं और बड़े-बड़े नगाड़ोंके शब्दोंसे सब ओर व्याप्त हुआ आकाश उस समय शब्दोंके अधीन हो रहा था अर्थात् चारों ओर शब्द ही शब्द सुनाई पड़ते थे ।।१०५।। उस समय इन्द्रोंके शरीरकी प्रभा समस्त आकाशको प्रकाशित कर रही थी और दुन्दुभियोंका विपुल तथा मनोहर शब्द समस्त संसारको शब्दायमान कर रहा था ॥१०६॥ उस समय इन्द्रोंके हाथोंसे दुलाये जानेके कारण इधर-उधर फिरते हुए चमरोंके समूह आकाशमें ठीक हंसोंके समान जान पड़ते थे ।।१०७। जिस समय भगवान् पालकीपर आरूढ़ हुए थे उस समय करोड़ों देवकिंकरोंके हाथोंमें स्थित दण्डोंकी ताड़नासे इन्द्रोंके करोड़ों दुन्दुभि बाजे आकाशमें व्याप्त होकर बज रहे थे ॥१०८।। अकाशरूपी आँगनमें अनेक देवांगनाएँ विलाससहित नृत्य कर रही थीं उनका नृत्य छत्रबन्ध आदिकी चतुराई तथा आश्चर्यकारी अनेक करणों-नृत्यभेदोंसे सहित था ॥१०९।। मनोहर कण्ठवाली किन्नर जातिकी देवियाँ अपने मधुर स्वरसे कानोंको सुख देनेवाले मनोहर और मधुर तपाकल्याणोत्सवका गान कर रही थीं-उस समयके गीत गा रही थीं ॥११०॥ देवोंके वन्दीजन उच्च स्वरसे किन्तु उत्तम शब्दोंसे मंगल पाठ पढ़ रहे थे तथा उस समयके योग्य और सबके मनको, अनुरक्त करनेवाले अन्य पाठोंको भी पढ़ रहे थे ॥११॥ जिन्हें अत्यन्त हर्ष उत्पन्न हुआ है और जो चित्र-विचित्र-अनेक प्रकारकी पताकाएँ
१. तदावचकरुः अ०,१०,८०, स०, म०, ल०। किरन्ति स्म । २. देवभेदाः । ३. -राहरः इ०. स०। ४. प्रपेठुः अ०, ५०, इ., स०, म०, द०, ल० । ५. ताड़िताः । ६. शब्दमयमभूदित्यर्थः । ७. किंकराणाम् । ८. करन्यास । ९. करणोपेतं द०, इ० । १०. परिनिष्क्रमणोत्सवम् अ०। ११. व्यन्तरदेवेषु । १२. केतनहारिष प०, द०, म०, स०। १३. सम्मदसहितं यथा भवति तथा । सुसंघर्ष -प०, म०, ल०।