________________
सप्तदशं पर्व शङ्खानाध्मातगण्डेषु 'पिण्डीभूताङ्गयष्टिषु । सकाहलानिलिम्पेषु पूरयत्स्वनुरागतः ॥१३॥
अग्रेसरीषु लक्ष्मी पङ्कजन्य ग्रपाणिषु । समं समगलार्धाभिदिक्कुमारीमिरादरात ॥११॥ दस्यमीषु विशेषेषु प्रभवत्सु यथायथम् । संप्रमोदमयं विश्वमातन्वअद्भुतोदयः ॥११५॥ पराय॑रत्ननिर्माणं दिन्यं यानमधिष्ठितः । रत्नक्षोणीप्रतिष्ठस्य श्रियं मेरोविंडम्बयन् ॥११६।। कण्ठाभरणमामारपरिवेषोपरक्तया । मुखार्कमासा न्यक्कुर्वन् ज्योतिज्योतिर्गणेशिनाम् ॥१७॥ उत्तमाङगतेनोच्चैः मौलिना विमणित्विषा । धुन्वानोग्नीन्द्रमौलीनां त्विषामाविष्कृतार्चिषाम् ॥११॥ किरीटोत्सासगिन्या सुमनःशेखरखजा । मनःप्रसादमात्मीयं मूनवोद्धस्य दर्शयन् ॥११९॥ प्रसन्नया दृशोर्मासा प्रोल्लसन्त्या समन्ततः । इग्विलासं सहस्राक्षे सांन्यासि कमिवार्पयन् ॥१२०॥ तिरस्कृताधरच्छायैदरोद्मिनः स्मितांशुमिः । क्षालयन्निव निःशेषं रागशेषं स्वशुद्धिभिः ॥१२१॥ हारेण हारिणा चारुवक्षःस्थलविलम्बिना । विडम्बयमिवादीन्दं प्रान्तपर्यस्तनिझरम् ॥१२२॥
लिये हुए हैं ऐसे भूत जातिके व्यन्तर देव भीड़में धक्का देते तथा अनेक प्रकारके नृत्य करते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे ।। ११२ ॥ देव लोग बड़े अनुरागसे अपने गालोंको फुलाकर और शरीरको पिण्डके समान संकुचित कर तुरही तथा शंख बजा रहे थे।॥ ११३॥हाथोंमें धारण किये हुई लक्ष्मी आदि देवियाँ आगे-आगे जा रही थीं और बड़े आदरसे मंगल द्रव्य तथा अर्घ लेकर दिक्कुमारी देवियाँ उनके साथ-साथ जा रही थीं ॥ ११४ ॥ इस प्रकार जिस समय यथायोग्य रूपसे अनेक विशेषताएँ हो रही थीं उस समय अद्भुत वैभवसे शोभायमान भगवान् वृषभदेव समस्त संसारको आनन्दित करते हुए अमूल्य रत्नोंसे बनी हुई दिव्य पालकीपर आरूढ़ होकर अयोध्यापुरीसे बाहर निकले । उस समय वे रत्नमयी पृथ्वीपर स्थित मेरु पर्वतकी शोभाको तिरस्कृत कर रहे थे। गलेमें पड़े हुए आभूषणोंकी कान्तिके समूहसे उनके मुखपर जो परिधिके आकारका लाल-लाल प्रभामण्डल पड़ रहा था उससे उनका मुख सूर्यके समान मालूम होता था, उस मुखरूपी सूर्यको प्रभासे वे उस समय ज्योतिषी देवोंके इन्द्र अर्थात् चन्द्रमाको ज्योतिको भी तिरस्कृत कर रहे थे। जिससे मणियोंकी कान्ति निकल रही है ऐसे मस्तकपर धारण किये हुए ऊँचे मुकुटसे वे, जिनसे ज्वाला प्रकट हो रही है ऐसे अग्निकुमार देवोंके इन्द्रोंके मुकुटोंकी कान्तिको भी तिरस्कृत कर रहे थे। उनके मुकुटके मध्यमें जो फूलोंका सेहरा पड़ा हुआ था उसकी मालाओंके द्वारा मानो वे भगवान अपने मनकी प्रसन्नताको ही मस्तकपर धारण कर लोगोंको दिखला रहे थे। उनके नेत्रोंकी जो स्वच्छ कान्ति चारों ओर फैल रही थी उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्रके लिए संन्यास धारण करनेके समय होनेवाला नेत्रोंका विलास ही अर्पित कर रहे हों अर्थात् इन्द्रको सिखला रहे हों कि संन्यास धारण करनेके समय नेत्रोंकी चेष्टाएँ इतनी प्रशान्त हो जाती हैं। कुछ-कुछ प्रकट होती हई मसकानकी किरणोंसे उनके ओठोंकी लाल-लाल कान्ति भी छिप जाती थी जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी विशुद्धिके द्वारा बाकी बचे हुए सम्पूर्ण रागको ही धो रहे हों। उनके सुन्दर वक्षस्थलपर जो मनोहर हार पड़ा हुआ था उससे वे भगवान् जिसके किनारेपर निर्झरना पड़ रहा है ऐसे सुमेरु पर्वतकी भी विडम्बना कर रहे थे। जिनमें कड़े बाजूबन्द आदि आभूषण चमक रहे हैं ऐसी अपनी भजाओंकी शोभासे वे नागेन्द्रके फणमें लगे हए रनोंकी कान्तिके समहकी भर्त्सना कर रहे थे । करधनीसे घिरे हुए जघनस्थलकी शोभासे भगवान ऐसे मालूम होते थे मानो वेदिकासे घिरे हुए जम्बू द्वीपकी शोभा ही स्वीकृत कर रहे हों। ऊपरकी दोनों गाँठोंतक देदीप्य
१. संकोचीभूत । २. पुरोगामिनीषु। ३. श्रीह्रीधत्यादिषु। ४. उपरञ्जितया। ५. अधःकुर्वन् । न्यत्कुर्वन् प०, म०, ल० । ६. मुकुटेन । ७. निक्षेपार्हम् । 'अमानित-निक्षेप' । ८. प्रवत्त ।