________________
सप्तदश पर्व
३८१ इत्युच्चरुत्सबद्वैतव्यग्रथुजनभूजनम् । 'परमानन्दसाद्भूतमभूत्तद्राजमन्दिरम् ॥९॥ वित्तीर्णराज्यभारस्य विभोरधियुवेश्वरम् । परिनिष्क्रमणोद्योगस्तदा जज्ञे निराकुलः ॥९॥ शेषेभ्योऽपि स्वसूनुभ्यः संविभज्य महामिमाम् । विभुर्विश्राणयामास निर्मुमुक्षुरसंभ्रमी ॥१२॥ सुरेन्द्रनिर्मितां दिव्यां शिविका स सुदर्शनाम् । सनाभीन्नाभिराजादीनापृच्छयारक्षदक्षरः ॥१३॥ सादरं च शचीनाथदत्तहस्तावलम्बनः । प्रतिज्ञामिव दीक्षायामारूढः शिविकां विभुः ॥९॥ दीक्षाङ्गनापरिष्वङ्ग परिवर्धितकौतुकः । प्रशय्यां न समारूढः स धाता शिबिकाछलात् ॥९॥ रग्बी मलयजालिप्सीसमूर्तिरलं कृतः । स रेजे शिविकारूदस्तपीलक्ष्म्या वरोत्तमः ॥१६॥ परां विशुद्धिमान्दः प्राक् पश्चाच्छिविको विभुः । तदाकरोदिवाभ्यास गुणश्रेण्यधिरोहणे ॥९॥ पदानि सप्त तामू हुः शिबिकां प्रथमं नृपाः । ततो विद्याधरा निन्युर्योम्नि सप्तपदान्तरम् ॥१८॥ 'स्कन्धाधिरोपितां कृत्वा ततोऽमूमविलम्बितम् । सुरासुराः खमुत्पेतुरारूढप्रमदोदयाः ॥१९॥
"पर्याप्तमिदमेवास्य प्रभोर्माहात्म्यशंसनम् । यत्तदा त्रिदिवाधीशा जाता''युग्यकवाहिनः ॥१०॥ मनुष्योंके पुण्यपाठका शब्द हो रहा था ।।८९॥ इस प्रकार दोनों ही बड़े-बड़े उत्सवों में जहाँ देव और मनुष्य व्यग्र हो रहे हैं ऐसा वह राज-मन्दिर परम आनन्दसे व्याप्त हो रहा था-उसमें सब ओर हर्ष ही हर्ष दिखाई देता था।॥९॥ भगवानने अपने राज्यका भार दोनों ही युवराजोंको समर्पित कर दिया था इसलिए उस समय उनका दीक्षा लेनेका उद्योग बिलकुल ही निराकुल हो गया था-उन्हें राज्यसम्बन्धी किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं रही थी ।।९१॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले भगवानने सम्भ्रम-आकुलतासे रहित होकर अपने शेष पुत्रोंके लिए भी यह पृथिवी विभक्त कर बाँट दी थी।। ९२ ।। तदनन्तर अक्षर-अविनाशी भगवान , महाराज नाभिराज आदि परिवारके लोगोंसे पूछकर इन्द्रके द्वारा बनायी हुई सुन्दर सुदर्शन नामकी पालकीपर बैठे ।।९३॥ बड़े आदरके साथ इन्द्रने जिन्हें अपने हाथका सहारा दिया था ऐसे भगवान वृषभदेव दीक्षा लेने की प्रतिज्ञाके समान पालकीपर आरूढ़ हुए थे ।।१४।। दीक्षारूपी अंगनाके आलिंगन करनेका जिनका कौतुक बढ़ रहा है ऐसे भगवान् वृषभदेव उस पालकीपर आरूढ़ होते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो पालकीके छलसे दीक्षारूपी अंगनाकी श्रेष्ठ शय्यापर ही आरूढ़ हो रहे हों ।।१५।। जो मालाएँ पहने हुए हैं, जिनका देदीप्यमान शरीर चन्दनके लेपसे लिप्त हो रहा है और जो अनेक प्रकारके वस्त्राभूपणोंसे अलंकृत हो रहे हैं ऐसे भगवान् वृपभदेव पालकीपर आरूढ़ हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो तपरूपी लक्ष्मीके उत्तम वर ही हों ।।९।। भगवान वृषभदेव पहले तो परम विशुद्धतापर आरूढ़ हुए थे अर्थात् परिणामोंकी विशुद्धताको प्राप्त हुए थे और बाद में पालकीपर आरूढ़ हुए थे इसलिए वे उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणस्थानोंकी श्रेणी चढ़ने का अभ्यास ही कर रहे हों ।।१७। भगवानकी उस पालकीको प्रथम ही राजा लोग सात पैड़ तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाशमें सात पेड़ तक ले चले गए। तदनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवोंने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपने कन्धोंपर रखी और शीघ्र ही उसे आकाशमें ले गये ।।९।। भगवान् वृषभदेवके माहात्म्यकी प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवोंके अधिपति इन्द्र भी
१. परमानन्दमयमित्यर्थः । २. युवेश्वरयोः । ३. ददौ । 'श्रण दाने' इति धातोः। ४. अनाकुल: स्थैर्यवान् दीक्षाग्रहणसम्भ्रमवान् भूत्वा प्राक्तनकार्यव्याकुलान्तःकरणो न भवतीत्यर्थः । ५. विनश्वरः। ६.प्रभुः अ०, ५०, इ०, स०, द०, म०, ल० । ७. आलिंगन । ८. इव । तु अ०, म० । ९. भुजशिर । १०. आशु । ११. अलम् । १२. यानवाहकाः ।