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आपुराणम
भगवत्परिनिष्क्रान्तिकल्याणोत्सव एकतः । स्फीतद्धिरन्यतां यूनोः पृथ्वीराज्यार्पणक्षणः ॥ ७९ ॥ - बन्दुकश्नस्तपोराज्ये सज्जो राजर्षिरेकतः । युवानावन्यतो राज्यलक्ष्म्युद्वाहे कृतोद्यमाँ ॥८०॥ एकतः शिविकायाननिर्माणं सुरशिल्पिनाम् । वास्तुवेदिभिराख्धः परार्थ्यो मण्डपोऽन्यतः ॥ ८३ ॥ शचीदेव्यैकतो रङ्गवल्यादिरचना कृता । देव्याऽन्यतो यशस्वत्या सानन्द्रं ससुनन्दया ॥८२॥ एकतो मङ्गलद्रव्यधारिण्यो दिक्कुमारिकाः । अन्यतः कृतनेपथ्या वारमुख्या 'वरस्त्रियः ॥ ८३ ॥ "सुरवृन्दारकैः प्रीतैर्भगवानेकतो वृतः । क्षत्रियाणां सहस्रेण कुमारावन्यतो वृतौ ॥८४॥ पुष्पान्जलि: सुरैर्मुक्तः स्तुवानैर्भर्तुरेकतः । अन्यतः साशिषः शेषाः शिलाः पौरेर्युवेशिनोः ॥ ८५ ॥ एकतोऽप्सरसां नृत्तमस्पृष्टधरणीतलम् । सलीलपदविन्यासमन्यतो वारयोषिताम् ॥८६॥ एकतः सुरसूर्याणां प्रध्वानो रुदिङ्मुखः । नान्दीपटह निर्घोषप्रविजृ 'म्भितमन्यतः ॥८७॥ एकतः किन्नरारब्धकलमङ्गलनिःक्वणः । श्रन्यतोऽन्तः पुरस्त्रीणां मङ्गलोद्गीतिनि स्वनः ॥ ८८ ॥ एकतः सुरकोटोनां जय कोलाहलध्वनिः । पुण्यपाठककोटीनां संपाठध्वनिरन्यतः ॥ ८९ ॥
प्रकार के उत्सवोंके समय स्वर्गलोक और पृथिवीलोक दोनों ही हर्षनिर्भर हो रहे थे ।। ७८ ।। उस समय एक ओर तो बड़े वैभव के साथ भगवान्के निष्क्रमणकल्याणकका उत्सव हो रहा था और दूसरी ओर भरत तथा बाहुबली इन दोनों राजकुमारोंके लिए पृथिवीका राज्य समर्पण करनेका उत्सव किया जा रहा था ॥ ७९ || एक ओर तो राजर्षि - भगवान् वृषभदेव तपरूपी राज्य के लिए कमर बाँधकर तैयार हुए थे और दूसरी ओर दोनों तरुण कुमार राज्यलक्ष्मी के साथ विवाह करने के लिए उद्यम कर रहे थे ||८०|| एक ओर तो देवोंके शिल्पी भगवानको वनमें ले जानेके लिए पालकीका निर्माण कर रहे थे और दूसरी ओर वास्तुविद्या अर्थात् महल मण्डप आदि बनानेकी विधि जाननेवाले शिल्पी राजकुमारोंके अभिषेकके लिए बहुमूल्य मण्डप बना रहे थे ||८१|| एक ओर तो इन्द्राणी देवीने रंगावली आदिकी रचना की थी- रंगीन चौक पूरे थे और दूसरी ओर यशस्वती तथा सुनन्दा देवीने बड़े हर्षके साथ रंगावली आदिकी रचना की थी- तरह-तरह के सुन्दर चौक पूरे थे ॥ ८२ ॥ एक ओर तो दिक्कुमारी देवियाँ मंगल द्रव्य धारण किए हुई थीं और दूसरी ओर वस्त्राभूषण पहने हुई उत्तम वारांगनाएँ मंगल द्रव्य लेकर खड़ी हुई थीं ||८३|| एक ओर भगवान वृषभदेव अत्यन्त सन्तुष्ट हुए श्रेष्ठ देवोंसे घिरे हुए थे और दूसरी ओर दोनों राजकुमार हजारों क्षत्रिय राजाओंसे घिरे हुए थे ||८४|| एक ओर स्वामी वृषभदेवके सामने स्तुति करते हुए देवलोग पुष्पांजलि छोड़ रहे थे और दूसरी ओर पुरवासीजन दोनों राजकुमारोंके सामने आशीर्वाद के शेषाक्षत फेंक रहे थे || ८५ || एक ओर पृथिवीतलको बिना छुए ही अधर आकाश में अप्सराओंका नृत्य हो रहा था और दूसरी ओर वारांगनाएँ लीलापूर्वक पद-विन्यास करती हुई नृत्य कर रही थीं ||८६|| एक ओर समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले देवोंके बाजोंके महान शब्द हो रहे थे और दूसरी ओर नन्दी पट आदि मांगलिक बाजोंके घोर शब्द सब ओर फैल रहे थे || ८७|| एक ओर किन्नर जाति के देवों के द्वारा प्रारम्भ किये हुए मनोहर मंगल गीतोंके शब्द हो रहे थे और दूसरी ओर अन्तःपुरकी स्त्रियोंके मंगल गानोंकी मधुर ध्वनि हो रही थी ||८८|| एक ओर करोड़ों देवोंका जय जय ध्वनिका कोलाहल हो रहा था और दूसरी ओर पुण्यपाठ करनेवाले करोड़ों
१. राज्यसमर्पणोत्सवः । " कम्पोऽय क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः । " २. विवाहे । ३. गृहलक्षण । ४. बहुस्त्रियः म०, ल० । बहुश्रियः ट० । श्रीदेवीसदृशाः । सुपः प्राग्बहुर्वेति' ईषदपरिसमाप्ती बहुप्रत्ययः । ५. देवमुख्यैः । " वृन्दारको रूपिमुख्यो एके मुख्यान्य केवलाः ।" इत्यमरः । ६. आशीभिः सहिताः । ७. शेषाक्षताः । ८. प्रविजृम्भणम् । ९. निःस्वप्नः ल० ॥