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सप्तदर्श पर्व
तव धर्मामृतं स्रष्टुमेष कालः सनातनः । धर्मसृष्टिमतो देव विधातुं धातरर्हसि ॥६७॥ "जय त्वमीश कर्मारीन् जय मोहमहासुरम् । परीषहभटान् हप्तान् विजयस्व तपोबलात् ॥ ६८ ॥ उत्तिष्टतां भवान् मुक्तौ भुक्तैर्भोगैरलंतराम् । न स्वादान्तरमेषु स्याद् भूयोऽप्यनुभवेऽङ्गिनाम् ॥ ६९ ॥ इति लौकान्तिकैर्देवैः स्तुवानैरुपनाथितः । परिनिष्क्रमणे बुद्धिमधाद् धाता द्रढीयसीम् ॥७०॥ तावतैव नियोगेन कृतार्थास्ते दिवं ययुः । हंसा इव नभोवीथीं द्योतयन्तोऽङ्गदीप्तिभिः ॥७१॥ तावच्च नाकिनो नैकविक्रियाः कम्पितासनाः । पुरोऽभूवन् पुरो रस्य पुरोधाय पुरंदरम् ॥७२॥ नभोऽङ्गणमथारुध्य तेऽयोध्यां परितः पुरीम् । तस्थुः स्ववाहनानीका नाकिनाथा निकायशः ॥ ७३ ॥ ततोऽस्य परिनिष्क्रान्तिमहाकल्याणसंविधौ । महाभिषेक मिन्द्राद्याश्चक्रुः क्षीरार्णवाम्बुभिः ॥ ७४ ॥ अभिषिच्य विभुं देवा भूषयाञ्चक्रुरादृताः । दिव्यैविं भूषणैर्वस्त्रैर्माल्यैश्च मलयोद्भवैः ॥७५॥ ततोऽभिषिच्य साम्राज्ये भरतं सूनुमग्रिमम् । भगवान् भारतं वर्षं तत्सनाथं व्यधादिदम् ॥ ७६ ॥ यौवराज्ये च तं बाहुबलिनं समतिष्ठिपत् । तदा राजन्वतीत्यासीत् पृथ्वी ताभ्यामधिष्ठिता ॥७७॥ परिनिष्क्रान्तिराज्यानुसंक्रान्तिद्वितयोत्सवे । तदा स्वर्लोकभूलोकावास्तां प्रमदनिर्भरौ ॥७८॥
भव्यजीव रूपी चातक नवीन मेघ के समान आपकी सेवा कर सन्तुष्ट हों ||६६ || हे देव, अनादि प्रवाहसे चला आया यह काल अब आपके धर्मरूपी अमृत उत्पन्न करनेके योग्य हुआ है इस लिए हे विधाता, धर्मकी सृष्टि कीजिए - अपने सदुपदेशसे समीचीन धर्मका प्रचार कीजिए || ६७॥ हे ईश, आप अपने तपोबलसे कर्मरूपी शत्रुओंको जीतिए, मोहरूपी महाअसुरको जीतिए और परीषहरूपी अहंकारी योद्धाओंको भी जीतिए ||६८ || हे देव, अब आप मोक्षके लिए उठिएउद्योग कीजिए, अनेक बार भोगे हुए इन भोगोंको रहने दीजिए - छोड़िए क्योंकि जीवोंके बारबार भोगनेपर भी इन भोगोंके स्वाद में कुछ भी अन्तर नहीं आता - नूतनता नहीं आती ॥६९॥ इस प्रकार स्तुति करते हुए लौकान्तिक देवोंने तपश्चरण करनेके लिए जिनसे प्रार्थना की है ऐसे ब्रह्मा - भगवान् वृषभदेवने तपश्चरण करनेमें-दीक्षा धारण करनेमें अपनी दृढ़ बुद्धि लगायी ।। ७० ।। वे लौकान्तिक देव अपने इतने ही नियोगसे कृतार्थ होकर हंसोंकी तरह शरीरकी कान्तिसे आकाशमार्गको प्रकाशित करते हुए स्वर्गको चले गये ।। ७१ ॥ इतनेमें ही आसनोंके कम्पायमान होनेसे भगवान् के तप कल्याणकका निश्चय कर देव लोग अपने-अपने इन्द्रोंके साथ अनेक विक्रियाओंको धारण कर प्रकट होने लगे ॥७२॥
अथानन्तर समस्त इन्द्र अपने वाहनों और अपने-अपने निकाय के देवोंके साथ आकाशरूपी आँगनको व्याप्त करते हुए आये और अयोध्यापुरीके चारों ओर आकाशको घेरकर अपनेअपने निकाय के अनुसार ठहर गये ।। ७३ ।। तदनन्तर इन्द्रादिक देवोंने भगवान् के निष्क्रमण अर्थात् तपःकल्याणक करनेके लिए उनका क्षीरसागर के जलसे महाभिषेक किया ||७४ || अभिषेक कर चुकनेके बाद देवोंने बड़े आदर के साथ दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालाएँ और मलयागिरि चन्दनसे भगवानका अलंकार किया ||७५|| तदनन्तर भगवान् वृषभदेवने साम्राज्य पदपर अपने बड़े पुत्र भरतका अभिषेक कर इस भारतवर्षको उनसे सनाथ किया || ७६ || और युवराज पदपर बाहुबलीको स्थापित किया। इस प्रकार उस समय यह पृथिवी उक्त दोनों भाइयोंसे अधिष्ठित होनेके कारण राजन्वती अर्थात् सुयोग्य राजासे सहित हुई थी ॥७७॥ उस समय भगवान् वृषभदेवका निष्क्रमणकल्याणक और भरतका राज्याभिषेक हो रहा था इन दोनों
१. पुरोऽभवन् प० । २. पुरोगस्य अ०, प० । ३. सवाहनानीका प०, अ०, इ०, स०, ८०, म०, ल० । ४. गन्धैः । ५. तेन भरतेन सस्वामिकम् । ६. आसिता । ७ भवेताम् । 'अस् भुवि' लुड् द्विवचनम् । ८. सन्तोषातिशयौ ।