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सप्तदशं पर्व
३७७ सौधर्मेन्द्रस्ततोऽबोधि गुरोरन्त:समीहितम् । प्रयुक्तावधिरीशस्य श्रोधिजातेति तत्क्षणम् ॥४६॥ प्रभोः प्रबोधमाधानुं ततो लौकान्तिकामराः । पारनिष्क्रमणेज्या ब्रह्मलोकादवातरन् ॥४७॥ ते च सारस्वतादित्यो वह्निश्चारुण एव च । गर्दतोयः सतुषितोऽन्यायाधोऽरिष्ट एव च ॥४८॥ इत्यष्टधा निकायाख्यां दधाना वियुधोत्तमाः । प्राग्भवेऽभ्यस्तनिःशेषश्रुतार्थाः शुमभावनाः ॥४९॥ ब्रह्मलोकालयाः सौम्याः शुभलेश्या महर्द्धिकाः। तल्लोकान्तनिवासिवाद गता लौकान्तिकश्रुतिम् ॥५०॥ दिव्यहंसा विरेजुस्ते शिवोरुपुलिनोत्सुकाः । परिनिष्क्रान्तिकल्याण शरदागमशंसिनः ॥५१॥ सुमनोऽञ्जलयो मुक्ता बभुलौकान्तिकामरः । विभोरुपासितुं पादौ स्वचित्तांशा इवार्पिताः ॥५२॥ तेऽभ्यर्च्य भगवत्पादौ प्रसूनैः सुरभूरुहाम् । ततः स्तुतिमिरामिः स्तोतुं प्रारंभिरे विभुम् ॥५६॥ मोहारिविजयोद्योगमधुना संविवित्सुना । भगवन् भन्यलोकस्य बन्धुकृत्यं त्वयेहितम् ॥५४॥
: कारणं परम् । त्वमिदं विश्वमज्ञानप्रपातादुरिप्यसि ॥५५॥ स्वयाच दर्शितं धर्मतीर्थमासाच"दुस्तरम् । भव्याः संसारभीमाब्धिमुत्तरिष्यन्ति"हेलया ॥५६॥
तव वागंशवो दीप्रायोतयन्तोऽखिलं जगत् । भव्यपद्माकरे बोधमाधास्यन्ति रवेरिव ॥५७॥ समय भगवान मुक्तिरूपी अंगनाके समागमके लिए अत्यन्त चिन्ताको प्राप्त हो रहे थे इसलिए उन्हें यह सारा जगत् शून्य प्रतिभासित हो रहा था ॥४५॥ भगवान् वृपभदेवको बोध उत्पन्न हो गया है अर्थात् वे अब संसारसे विरक्त हो गए हैं ये जगद्गुरु भगवान्के अन्तःकरणको समस्त चेष्टाएँ इन्द्रने अपने अवधिज्ञानसे उसी समय जान ली थी॥४६।। उसी समय भगवानको प्रबोध करानेके लिए और उनके तप कल्याणककी पूजा करनेके लिए लौकान्तिक देव ब्रह्मलोकसे उतरे ॥४७॥ वे लौकान्तिक देव सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकारके हैं । वे सभी देवोंमें उत्तम होते हैं। वे पूर्वभवमें सम्पूर्ण श्रुतज्ञानका अभ्यास करते हैं। उनकी भावनाएँ शुभ रहती हैं। वे ब्रह्मलोक अर्थात् पाँचवें स्वर्गमें रहते हैं, सदा शान्त रहते हैं, उनकी लेश्याएँ शुभ होती हैं, वे बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंको धारण करनेवाले होते हैं और ब्रह्मलोकके अन्त में निवास करनेके कारण लौकान्तिक इस नामको प्राप्त हुए हैं ॥४८-५०।। वे लौकान्तिक स्वर्गके हंसोंके समान जान पड़ते थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी नदोके तटपर निवास करनेके लिए उत्कण्ठित हो रहे थे और भगवान्के दीक्षाकल्याणकरूपी शरद् ऋतुके आगमनकी सूचना कर रहे थे ॥५१॥ उन लौकान्तिक देवोंने आकर जो पुष्पांजलि छोड़ी थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो उन्होंने भगवान्के चरणोंकी उपासना करनेके लिए अपने चित्तके अंश ही समर्पित किए हों ॥५२।। उन देवोंने प्रथम ही कल्पवृक्षके फूलोंसे भगवान्के चरणोंको पूजा की और फिर अर्थसे भरे हुए स्तोत्रोंसे भगवान्की स्तुति करना प्रारम्भ की ॥५३।। हे भगवन् , इस समय जो आपने मोहरूपी शत्रुको जीतनेके उद्योगकी इच्छा को है उससे स्पष्ट सिद्ध है कि आपने भव्यजीवोंके साथ भाईपनेका कार्य करनेका विचार किया है अर्थात् भाईकी तरह भव्य जीवोंकी सहायता करनेका विचार किया है ॥५४॥ हे देव, आप परम ज्योति स्वरूप हैं, सब लोग आपको समस्त कार्योंका उत्तम कारण कहते हैं और हे देव, आप ही अज्ञानरूपी प्रपातसे संसारका उद्धार करेंगे ॥५५।। हे देव, आज आपके द्वारा दिखलाये हुए धर्मरूपी तीर्थको पाकर भव्यजीव इस दुस्तर और भयानक संसाररूपी समुद्रसे लीला मात्रमें पार हो जायेंगे ॥५६।। हे देव, जिस प्रकार सूर्यकी देदीप्यमान
हतम् । ९. त्वमेव कारणं इ०,
१. अन्तरङ्गसमाधानम् । २. तदा म०, ल०। ३. अवतरन्ति स्म। ४. समुदायसंख्याम् । ५. मोक्षपथसकत । ६. शरदारम्भ-प०, अ०, इ०, द.,स०। ७. बन्धत्वम् । ८. चेष्टितम् । ९. स्वमेव अ०, स० । १०. दुस्तरात् ल०, म । ११. भीभाब्धेकत्त-ल०, म० । १२. दीप्ता ल०, म०। १३. करिष्यन्ति ।
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