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आदिपुराणम् तत्रापीष्टवियोगोऽस्ति न्यूनास्तत्रापि कंचन । ततो मानसमंतेषां दुःखं दुःखेन लभ्यते ॥३॥ इति संसारचक्रेऽस्मिन् विचित्रैः परिवर्तनैः । दुःखमाप्नोति दुष्कर्मपरिपाकाद् वराककः ॥३५॥ 'नारीरूपमयं यन्त्रमिदमत्यन्तपेलवम् । पश्यतामेव नः साक्षात् कथमेतदगाल्लयम् ॥३६॥ रमणीयमिदं मत्वा स्त्रीरूपं बहिरुज्ज्वलम् । पतन्तस्तत्र नश्यन्ति पतङ्ग इव कामुकाः ॥३७॥ 'कूटनाटकमेतत्तु प्रयुक्तममरेशिना । नूनमस्मप्रबोधाय स्मृतिमाधाय धीमता ॥३८॥ यथेदमेवमन्यच्च भोगानं यत् किलाङ्गिनाम् । मन्गुरं नियतापायं केवलं तत्पलभ्यकम् ॥३९॥ किं किलाभरणैर्मा रैः किं मलैरनुलेपनैः । उन्मत्तचेष्टितैर्नृत्तैरलं गीतैश्च शोचितैः ॥४०॥-- यद्यस्ति स्वगता शोभा किं किलालंकृतैः कृतम् । यदि नास्ति स्वतः शोमा मारैरेमिस्तथापि किम्॥४१॥ तस्मादिग्धिगिदं रूपं धिक संसारमसारकम् । राज्यभोगं धिगस्त्वेनं धिग्धिगाकालिकीः श्रियः ॥४२॥ इति निर्विद्य भोगेभ्यो विरक्तारमा सनातनः । मुक्तावुत्तिष्ठते 'स्माशु काललब्धिमुपाश्रितः ॥४॥ तदा विशुद्धयस्तस्य हृदये पदमादधुः । मुक्तिलक्ष्म्येव "संदिष्टास्तत्सख्यः संमुखागताः ॥४४॥ तदास्य सर्वमप्येतत् शून्यवत् प्रत्यभासत । मुक्यङ्गनासमासंगे परां चिन्तामुपेयुषः ॥४५।।
तथापि जब स्वर्गसे इसका पतन होता है तब इसे सबसे अधिक दुःख होता है ।३३।। उस देवपर्यायमें भी इष्टका वियोग होता है और कितने ही देव अल्पविभूतिके धारक होते हैं जोकि अपनेसे अधिक विभूतिवालेको देखकर दुःखी होते रहते हैं इसलिए उनका मानसिक दुःख भी बड़े दुःखसे व्यतीत होता है ॥३४॥ इस प्रकार यह बेचारा दीन प्राणी इस संसाररूपी चक्रमें अपने खोटे कोंके उदयसे अनेक परिवर्तन करता हुआ दुःख पाता रहता है।॥३५॥ देखो, यह अत्यन्त मनोहर स्त्रीरूपी यन्त्र (नृत्य करनेवाली नीलोजनाका शरीर) हमारे साक्षात् देखते ही देखते किस प्रकार नाशको प्राप्त हो गया ॥३६॥ बाहरसे उज्ज्वल दिखनेवाले स्त्रीके रूपको अत्यन्त मनोहर मानकर कामीजन उसपर पड़ते हैं और पड़ते ही पतंगोंके समान नष्ट हो जाते हैं-अशुभ कर्मोका बन्ध कर हमेशाके लिए दुःखी हो जाते हैं ॥३७॥ इन्द्रने जो यह कपट नाटक किया है अर्थात् नीलांजनाका नृत्य कराया है सो अवश्य ही उस बुद्धिमानने सोच-विचारकर केवल हमारे बोध करानेके लिए ही ऐसा किया है ॥३८॥ जिस प्रकार यह नीलांजनाका शरीर भंगुर था-विनाशशील था इसी प्रकार जीवोंके अन्य भोगोपभोगोंके पदार्थ भी भंगुर हैं, अवश्य नष्ट हो जानेवाले हैं और केवल धोखा देनेवाले हैं ॥३९।। इसलिए भाररूप आभरणोंसे क्या प्रयोजन है, मैलके समान सुगन्धित चन्दनादिके लेपनसे क्या लाभ है, पागल पुरुषकी चेष्टाओंके समान यह नृत्य भी व्यर्थ है और शोकके समान ये गीत भी प्रयोजनरहित हैं ॥४०॥ यदि शरीरकी निजकी शोभा अच्छी है तो फिर अलंकारोंसे क्या करना है और यदि शरीरमें निजकी शोभा नहीं है तो फिर भारस्वरूप इन अलंकारोंसे क्या हो सकता है ? ॥४१॥ इसलिए इस रूपको धिक्कार है, इस असार संसारको धिक्कार है, इस राज्य-भोगको धिक्कार है और बिजलीके समान चंचल इस लक्ष्मीको धिक्कार है ॥४२॥ इस प्रकार जिनकी आत्मा विरक्त हो गयी है ऐसे भगवान् वृषभदेव भोगोंसेविरक्त हुए और काललब्धिको पाकर शीघ्र ही मुक्तिके लिए उद्योग करने लगे ॥४३।। उस समय भगवानके हृदयमें विशुद्धियोंने अपना स्थान जमा लिया था और वे ऐसी मालूम होती थीं मानो मुक्तिरूपी लक्ष्मीके द्वारा प्रेरित हुई उसकी सखियाँ ही सामने आकर उपस्थित हुई हों ॥४४॥ उस
१. नीलाञ्जनारूप। २. निस्सारम् । चञ्चलम् । ३. कपट । ४. विनश्वरम् । ५. वञ्चकम । ६. शोकः। ७. तहि। ८. राज्यं भोगं अ०, ५०, इ०, स०। ९. विद्युदिव चञ्चलां लक्ष्मीम् । १०. निवेदपरो भूत्वा । ११. उद्युक्तो बभूव । १२. विशुद्धिपरिणामाः। १३. प्रेषिताः । १४. जगत्स्थम् ।