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आदिपुराणम् सौदामिनी लतेवासौ दृष्टनष्टामवत् क्षणात् । रसमगमयादिन्द्रः संदधेऽत्रापरं वपुः ॥९॥ तदेव स्थानकं रम्यं सा भूमिः स परिक्रमः । तथापि भगवान् वेद तत्त्वरूपान्तरं तदा ॥१०॥ ततोऽस्य चेतसीत्यासीच्चिन्ताभोगाद् विरज्यतः । परां संवेगनिवेदभावनामुपजग्मुषः ।।११॥ अहो जगदिदं भङ्गि श्रीस्तर्टि द्वल्लरीचला । यौवनं वपुरारोग्यमैश्वर्य च चलाचलम् ।।१२।। रूपयौवनसौभाग्यमदोन्मत्तः पृथग्जनः । बध्नाति स्थायिनी बुद्धि किं न्वत्र नविनश्वरम् ॥१३॥ संध्यारागनिभा रूपशोमा तारुण्यमुज्ज्वलम् । पल्लवच्छविवत् सद्यः परिम्लानिमुपाश्नुते ॥१४॥ यौवनं वनवल्लीनामिव पुष्पं परिक्षयि । विषवल्लीनिमा मोगसंपदो मङ्गि जीवितम् ॥१५॥ घटिका जलधारेव गलत्यायुःस्थितिद्भुतम् । शरीरमिदमत्यन्तपूतिगन्धि जुगुप्सितम् ॥१६॥ निःसारे खलु संसारे सुखलेशोपि दुर्लभः । दुःखमेव महत्तस्मिन् सुखं काम्यति मन्दधीः ॥१७॥ नरकेषु यदेतेन दुःखमासेवितं महत् । तच्चेत्स्मयत कः कुर्याद् भोगेषु स्पृहयालुताम् ॥१८॥ नूनमार्तधियां भुक्ता भोगाः सर्वेऽपि देहिनाम् । दुःखरूपेण पच्यन्ते निरये निरयोदये ॥१९॥ स्वप्नजं च सुखं नास्ति नरके दुःखभूयसि । दुःखं दुःखानुबन्ध्येव यतस्तत्र दिवानिशम् ॥२०॥ ततो विनिःसृतो जन्तुस्तैरश्चं दुःखमायतम् । स्वसाकरोति मन्दास्मा नानायोनिपु पर्यटन् ॥२१॥
चलता रहा । यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देनेके बाद भी वही मनोहर स्थान था, वही मनोहर भूमि थी और वही नृत्यका परिक्रम था तथापि भगवान् वृषभदेवने उसी समय उसके स्वरूपका अन्तर जान लिया था॥७-१०॥ तदनन्तर भोगोंसे विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावनाको प्राप्त हुए भगवानके चित्तमें इस प्रकार चिन्ता उत्पन्न हुई कि ॥११॥ बड़े आश्चर्यकी बात है कि यह जगत् विनश्वर है, लक्ष्मी बिजलीरूपी लताके समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल हैं ॥१२॥ रूप, यौवन और सौभाग्यके मदसे उन्मत्त हुआ अज्ञ पुरुप इन सबमें स्थिर बुद्धि करता है परन्तु उनमें कौन-सी वस्तु विनश्वर नहीं है ? अर्थात् सभी वस्तुएँ विनश्वर हैं ।।१३।। यह रूपकी शोभा सन्ध्या कालकी लालीके समान क्षणभरमें नष्ट हो जाती है और उज्ज्वल तारुण्य अवस्था पल्लवकी कान्तिके समान शीघ्र ही म्लान हो जाती है ॥१४॥ वनमें पैदा हुई लताओंके पुष्पोंके समान यह यौवन शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाला है, भोग सम्पदाएँ विषवेलके समान हैं और जीवन विनश्वर है ।।१५।। यह आयुकी स्थिति घटीयन्त्रके जलकी धाराके समान शीघ्रताके साथ गलती जा रही है-कम होती जा रही है और यह शरीर अत्यन्त दुर्गन्धित तथा घृणा उत्पन्न करनेवाला है ॥१६॥ यह निश्चय है कि इस असार संसारमें सुखका लेश मात्र भी दुर्लभ है और दुःख बड़ा भारी है फिर भी आश्चर्य है कि मन्दबुद्धि पुरुष उसमें सुखकी इच्छा करते हैं ॥१७। इस जीवने नरकोंमें जो महान् दुःख भोगे हैं यदि उनका स्मरण भी हो जाये तो फिर ऐसा कौन है, जो उन भोगोंकी इच्छा करे ।।१८।। निरन्तर आर्तध्यान करनेवाले जीव जितने कुछ भोगोंका अनुभव करते हैं वे सब उन्हें अत्यन्त असाताके उदयसे भरे हुए नरकोंमें दुःखरूप होकर उदय आते हैं ।।१९।। दुःखोंसे भरे हुए नरकोंमें कभी स्वप्नमें भी सुख प्राप्त नहीं होता क्योंकि वहाँ रात-दिन दुःख ही दुःख रहता है और ऐसा दुःख जो कि दुःखके कारणभूत असाता कर्मका बन्ध करनेवाला होता है ॥२०॥ उन नरकोंसे किसी तरह निकलकर यह मूर्ख जीव अनेक योनियों में परिभ्रमण
१. संयोजयति स्म । २. बहुरूपम् । ३. पदचारिः। ४. विरक्ति गतस्य । ५. विनाशि । ६.-तडिद् बल्लरी-अ०, ५०, ८०, इ०, म०, स० । ७. पामरः। ८. त्वत्र द०, प० । तत्र ल.। ९. विनश्वरीम द०, प०। १०. प्रतिमोपरि सुगन्ध जलस्रवणार्थं धृतजलधारावत् । ११. सुखमिच्छत्यात्मनः । सुखकाम्यति ब०। १२. अयोदयान्निष्क्रान्ते शुभकर्मोदयरहिते इत्यर्थः । १३. दीर्घ भूयिष्ठमित्यर्थः । १४. स्वाधीनं करोति ।