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सप्तदशं पर्व
अथान्यधुर्महास्थानमध्ये नृपशतैर्वृतः । स सिंहासनमध्यास्त यथार्को नैषधं तटम् ॥१॥ तथासीनं च तं देवं देवराट् पर्युपासि तुम् । साप्सराः सहगन्धर्वः सस पर्यमुपासदत् ॥२॥ ततो यथोचितं स्थानमध्या सिष्टाधिविष्टरम् । जयन्नुदयमूर्धस्थमर्कमात्मीयतेजसा ॥३॥ "आरिराधयिषुर्देवं सुरराड् भक्तिनिर्भरः । प्राययुअत् सगन्धर्व नृत्यमाप्सरस तदा ॥४॥ तन्नृत्यं सुरनारीणां मनोऽस्यारम्जयत् प्रमोः । स्फाटिको हि मणिः शुद्धोऽप्यादत्ते रागमन्यत: ॥५॥ राज्यभोगात् कथं नाम विरज्येद् भगवानिति । ''प्रक्षीणायुर्दशं पात्रं तदा प्रायुक्त देवराट् ॥६॥ ततो नीलाञ्जना नाम ललिता सुरनर्तकी । रसभावलयोपेतं नटन्ती सपरिक्रमम् ॥७॥ क्षणादरश्यतां पाप किलायुःपसंक्षये । प्रभातरलितां मूर्ति दधाना तडिदुज्वलाम् ॥
-- अथानन्तर किसो एक दिन सैकड़ों राजाओंसे घिरे हुए भगवान् वृषभदेव विशाल सभामण्डपके मध्यभागमें सिंहासनपर ऐसे विराजमान थे, जैसे निषध पर्वतके तटभागपर सूर्य विराजमान होता है ॥१॥ उस प्रकार सिंहासनपर विराजमान भगवान्की सेवा करने के लिए इन्द्र, अप्सराओं और देवोंके साथ, पूजाकी सामग्री लेकर वहाँ आया ।।२।। और अपने तेजसे उदयाचलके मस्तकपर स्थित सूर्यको जीतता हुआ अपने योग्य सिंहासनपर जा बैठा ॥३॥ भक्तिविभोर इन्द्रने भगवानकी आराधना करनेकी इच्छासे उस समय अप्सराओं और गन्धर्वोका नृत्य कराना प्रारम्भ किया ॥४॥ उस नृत्यने भगवान् वृषभदेवके मनको भी अनुरक्त बना दिया था सो ठीक ही है, अत्यन्त शुद्ध स्फटिकमणि भी अन्य पदार्थोंके संसर्गसे राग अर्थात् लालिमा धारण करता है ।।५।। भगवान राज्य और भोगोंसे किस प्रकार विरक्त होंगे यह विचारकर इन्द्रने उस समय नृत्य करनेके लिए एक ऐसे पात्रको नियुक्त किया जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो गयी थी॥६।। तदनन्तर वह अत्यन्त सुन्दरी नीलांजना नामकी देवनर्तकी रस, भाव और लयसहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही आयुरूपी दीपकके क्षय होनेसे वह क्षण-भरमें अदृश्य हो गयी। जिस प्रकार बिजलीरूपी लता देखते-देखते क्षण-भर में नष्ट हो जाती है उसी प्रकार प्रभासे चंचल और विजलीके समान उज्ज्वल मूर्तिको धारण करनेवाली वह देवी देखते-देखते ही क्षण-भरमें नष्ट हो गयी थी। उसके नष्ट होते ही इन्द्रने रसभंगके भयसे उस स्थानपर उसीके समान शरीरवाली दूसरी देवी खड़ी कर दी जिससे नृत्य ज्योंका-त्यों
१. इन्द्रः । २. आराधयितुम् । ३. पूजया सहितं यथा भवति तथा । ४. अध्यास्ते स्म । ५. आराधयितु. मिच्छुः । ६. अतिशयः । ७. प्रयोजयति स्म । ८. सगन्धर्वो प०, स०, द०, इ० । ९. अप्सरसामिदम् । १०. जपाकुसुमादेः । ११. प्रणष्टायुष्यावस्थम् । १२. पदचारिभिः सहितं यथा भवति तथा ।