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आदिपुराणम्
शार्दूलविक्रीडितम् , स श्रीमानिति नित्यभोगनिरतः पुत्रैश्च पौग्रेनिंजे
रारूठप्रणयरुपा हितधृतिः सिंहासनाध्यासितः । शक्राक्केंन्दुपुरस्सरैः सुरवर! ढोल्लसच्छासनः
शास्ति स्माप्रतिशासनो भुवमिमामासिन्धुसीमां जिनः ॥२७५॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्ष्णश्रीआदिपुराणसंग्रहे. भगवत्साम्राज्यवर्णन
नाम षोडशं पर्व ॥१६॥
सुख प्राप्त करना चाहते हो तो हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनियोंके लिए दान दो, तीर्थकरोंको नमस्कार कर उनकी पूजा करो, शीलवतोंका पालन करो और पर्वके दिनोंमें उपवास करना नहीं भूलो ॥२७४। इस प्रकार जो प्रशस्त लक्ष्मीके स्वामी थे, स्थिर रहनेवाले भोगोंका अनुभव करते थे, स्नेह रखनेवाले अपने पुत्र पौत्रोंके साथ सन्तोष धारण करते थे। इन्द्र सूर्य और चन्द्रमा आदि उत्तम-उत्तम देव जिनकी आज्ञा धारण करते थे, और जिनपर किसीकी आज्ञा नहीं चलती थी ऐसे भगवान् वृषभदेव सिंहासनपर आरूढ़ होकर इस समुद्रान्त पृथिवीका शासन करते थे ॥२७॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण आदिपुराणसंग्रहमें
भगवान्के साम्राज्यका वर्णन करनेवाला सोलहवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥१६॥
१. धृतस्नेहैः । २. प्राप्तसन्तोषः । ३. व्यूढ धृत । ४. -मासिन्धुसीमं प०, द०, स०।