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सप्तदशं पर्व
३७५ पृथिव्यामप्सु वह्नौ च पवने सवनस्पती । बंभ्रम्यते महादुःखमश्नुवानो बताशकः ॥२२॥ खननोत्तापनज्वालिज्वालाविध्यापनैरपि । घनाभिघातै श्छेदैश्च दुःखं तत्रैति दुस्तरम् ॥२३॥ सूक्ष्मबादरपर्याप्त तद्विपक्षात्मयोनिषु । पर्यटत्यसकृज्जीवो घटीयन्त्रस्थितिं दधत् ॥२४॥
सकायेष्वपि प्राणी बधबन्धोपरोधनैः । 'दुःखासिकामवाप्नोति सर्वावस्थानुयायिनीम् ॥२५॥ जन्मदुःखं ततो दुःखं जरामृत्युस्ततोऽधिकम् । इति दुःखशतावर्ते जन्मान्धौ स निमग्नवान् ॥२६॥ क्षणानश्यन् क्षणाज्जीर्यन् क्षणाज्जन्म समाप्नुवन् । जन्ममृत्युजरातकपङ्के मज्जति गौरिव ॥२७॥ अनन्तं कालमित्यज्ञस्तिर्यक्त्वे दुःखमश्नुते । दुःखस्य हि परं धाम तिर्यक्त्वं मन्वते जिनाः ॥२८॥ ततः कृच्छाद् विनिःसृत्य शिथिले दुष्कृते मनाक । मनुष्यमावमाप्नोति कर्मसारथिचोदितः ॥२९॥ तत्रापि विविधं दुःखं शारीरं चैव मानसम् । प्राप्नोस्यनिच्छुरेवारमा निरुद्धः कर्मशत्रमिः ॥३०॥ पराराधनदारिद्रयचिन्ता शोकादिसम्भवम् । दुःखं महन्मनुष्याणां प्रत्यक्षं नरकायते ॥३१॥ शरीरशकटं दुःखदुर्भाण्ड: परिपूरितम् । दिनस्त्रिचतुरैरेव पर्यस्यति न संशयः ॥३२॥ 'दिम्यमावे किलतेषां सुखमाक्त्वं शरीरिणाम् । तत्रापि त्रिदिवाद् वातः परं दुःखं दुरुत्तरम् ॥३३॥
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करता हुआ तिर्यच गतिके बड़े भारी दुःख भोगता है ।।२१॥ बड़े दुःखकी बात है कि यह अज्ञानी जीव पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंमें भारी दुःख भोगता हुआ निरन्तर भ्रमण करता रहता है ।।२२।। यह जीव उन पृथिवीकायिक आदि पर्यायोंमें खोदा जाना, जलती हुई अग्निमें तपाया जाना, बुझाया जाना, अनेक कठोर वस्तुओंसे टकरा जाना, तथा छेदान्भेदा जाना आदिके कारण भारी दुःख पाता है।।२३॥ यह जीव घटीयन्त्रकी स्थितिको धारण करता हुआ सूक्ष्म बादर पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक अवस्थामें अनेक बार परिभ्रमण करता रहता है ।॥२४॥ त्रस पर्यायमें भी यह प्राणी मारा जाना, बाँधा जाना और रोका जाना आदिके द्वारा जीवनपर्यन्त अनेक दुःख प्राप्त करता रहता है ॥२५॥ सबसे प्रथम इसे जन्म अर्थात् पैदा होनेका दुःख उठाना पड़ता है, उसके अनन्तर बुढ़ापाका दुःख और फिर उससे भी अधिक मृत्युका दुःख भोगना पड़ता है, इस प्रकार सैकड़ों दुःखरूपी भँवरसे भरे हुए संसाररूपी समुद्र में यह जीव सदा डूबा रहता है ।।२६।। यह जीव क्षण-भरमें नष्ट हो जाता है, क्षण-भरमें जीर्ण (वृद्ध) हो जाता है और क्षण-भरमें फिर जन्म धारण कर लेता है इस प्रकार जन्म-मरण, बुढ़ापा और रोगरूपी कीचड़में गायकी तरह सदा फंसा रहता है ।।२७। इस प्रकार यह अज्ञानी जीव तियच योनिमें अनन्त कालतक दुःख भोगता रहता है सो ठीक हो है क्योंकि जिनेन्द्रदेव भी यही मानते हैं कि तियंच योनि दुःखोंका सबसे बड़ा स्थान है ॥२८॥ तदनन्तर अशुभ कर्मोके कुछ-कुछ मन्द होनेपर यह जीव उस तियच योनिसे बडी कठिनतासे बाहर निकलता है और कर्मरूपी सारथिसे प्रेरित होकर मनुष्य पर्यायको प्राप्त होता है ।।२९॥ वहाँपर भी यह जीव यद्यपि दुःखोंकी इच्छा नहीं करता है तथापि इसे कर्मरूपी शत्रुओंसे निरुद्ध होकर अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक दुःख भोगने पड़ते हैं ॥३०॥ दूसरोंकी सेवा करना, दरिद्रता, चिन्ता
और शोक आदिसे मनुष्योंको जो बड़े भारी दुःख प्राप्त होते हैं वे प्रत्यक्ष नरकके समान जान पड़ते हैं ॥३१॥ यथार्थमें मनुष्योंका यह शरीर एक गाड़ीके समान है जो कि दुःखरूपी खोटे बरतनोंसे भरी है इसमें कुछ भी संशय नहीं है कि यह शरीररूपी गाडी तीन चार दिनमें ही उलट जायेगी-नष्ट हो जायेगी ॥३२॥ यद्यपि देवपर्यायमें जीवोंको कुछ सुख प्राप्त होता है
१. अग्निज्वालाप्रशमनैः । २. मेघताडनः । ३. सूक्ष्मबादरापर्याप्तः । ४. दुःखस्थताम् । ५. बाल्याद्यवस्थाऽनुयायिनीम् । ६. प्रत्यक्षं न-द० । ७. भाण्डेरतिपूरितम् । ८. प्रेणस्यति । ९. देवत्वे ।