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आदिपुराणम्
काश्यपोऽपि गुरोः प्राप्तमाधवाख्यः पतिर्विशाम्' । उग्रवंशस्य वंश्योऽभूत् किन्नाप्यं स्वामिसंपदा ॥२६१॥ तदा" कच्छ महाकच्छप्रमुखानपि भूभुजः । सोऽधिराजपदे देवः स्थापयामास सत्कृतान् ॥ २६२॥ पुत्रानपि तथा योग्यं वस्तुवाहनसंपदा । भगवान् संविधन्ते स्म तद्धि राज्योब्जने' फलम् ॥२६३॥
कानाच्च तदेक्षूणां रससंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरिस्यभूद् देवो जगतामभिसंमतः ॥ २६४॥ गौः स्वर्गः स प्रकृष्टास्मा गौतमोऽभिमतः सताम् । स तस्मादागतो देवो गौतमश्रुतिमन्वभूत् ॥२६५॥ काश्यमित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनात् । जीवनोपायमननान् मनुः कुलधरोऽप्यसौ ॥ २६६॥ विधाता विश्वकर्मा च स्रष्टा चेत्यादिनामभि: । प्रजास्तं व्याहरन्ति स्म जगतां पतिमच्युतम् ॥ २६७॥ त्रिषष्टिलक्षाः पूर्वाण राज्यकालोऽस्य संमितः स तस्य पुत्रपौत्रादिवृतस्याविदितोऽगमत् ॥ २६८ ॥ स सिंहासनमायोध्यमध्यासीनो महाद्युतिः । सुखादुपनतां" पुण्यैः साम्राज्यश्रियमन्वभूत् ॥२६९॥ वसन्ततिलका
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इथं सुरासुरगुरुर्गुरु पुण्ययोगाद्
भोगान् वितन्वति तदा सुरलोकनाथे ।
भगवान्से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नतासे नाथवंशका नायक हुआ ।। २६० || और काश्यप भी जगद्गुरु भगवान् से मघवा नाम प्राप्तकर उग्रवंशका मुख्य राजा हुआ सो ठीक ही है । स्वामीकी सम्पदासे क्या नहीं मिलता है ? अर्थात् सब कुछ मिलता है || २६१।। तदनन्तर भगवान् आदिनाथने कच्छ महाकच्छ आदि प्रमुख प्रमुख राजाओंका सत्कार कर उन्हें अधिराजके पदपर स्थापित किया || २६२।। इसी प्रकार भगवान्ने अपने पुत्रोंके लिए भी यथायोग्य रूपसे महल, सवारी तथा अन्य अनेक प्रकारकी सम्पत्तिका विभाग कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि राज्यप्राप्तिका यही तो फल है | २६३ || उस समय भगवान्ने मनुष्योंको इक्षुका रस संग्रह करनेका उपदेश दिया था इसलिए जगत् के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे || २६४ || 'गो' शब्दका अर्थ स्वर्ग है जो उत्तम स्वर्ग हो उसे सज्जन पुरुष 'गोतम' कहते हैं । भगवान् वृषभदेव स्वर्ग में सबसे उत्तम सर्वार्थसिद्धिसे आये थे इसलिए वे 'गौतम' इस नामको भी प्राप्त हुए थे ।। २६५ ॥ 'काश्य' तेजको कहते हैं भगवान् वृषभदेव उस तेजके रक्षक थे इसलिए 'काश्यप' कहलाते थे उन्होंने प्रजाकी आजीविकाके उपायोंका भी मनन किया था इसलिए वे मनु और कुलधर भी कहलाते थे || २६६ || इनके सिवाय तीनों जगत्के स्वामी और विनाशरहित भगवान्को "प्रजा 'विधाता' 'विश्वकर्मा' और 'स्रष्टा' आदि अनेक नामोंसे पुकारती थी ॥ २६७ ॥ भगवान्का राज्यकाल तिरसठ लाख पूर्व नियमित था सो उनका वह भारी काल, पुत्र-पौत्र आदिसे घिरे रहने के कारण बिना जाने ही व्यतीत हो गया अर्थात् पुत्र-पौत्र आदिके सुखका अनुभव करते हुए उन्हें इस बातका पता भी नहीं चला कि मुझे राज्य करते समय कितना समय हो गया है ||२६|| महादेदीप्यमान भगवान् वृषभदेवने अयोध्या के राज्यसिंहासनपर आसीन होकर पुण्योदयसे प्राप्त हुई साम्राज्यलक्ष्मीका सुखसे अनुभव किया था || २६९ || इस प्रकार सुर और
१. नृणाम् । २. वंशश्रेष्ठ: । ३. प्राप्यम् । ४ तथा अ०, प०, स०, म०, ६०, ल० । ५. संविभागं करोति स्म । समृद्धानकरोदित्यर्थः । ६. राज्यार्जने ब०, ६०, स० म० अ०, प०, ल० । ७. 'कै, गै, ₹ शब्दे' इति धातोनिष्पन्नोयं शब्दः । वचनादित्यर्थः चीत्काररवात् । आकनात् द० म०, ल० । ८. इथूनाकाययतीति इक्ष्वाकुः । ९. ब्रुवन्ति स्म । १०. सः कालः । ११. सम्प्राप्ताम् । १२. भूरिपुण्य ।