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आदिपुराणम् स्वदोभ्यां धारयन् शस्त्र क्षत्रिय नमृजद् विभुः । क्षतत्राणे नियुक्ता हि भत्रियाः शत्रपाणयः ॥२४३॥ ऊरुभ्यां दर्शयन यात्रामस्राक्षीद वणिजः प्रभुः । जलस्थलादियात्राभिस्तद्वृत्सिर्वात्तयाँ यतः ॥२४४॥ न्यग्वृत्तिनियतां शूद्रां पद्भ्यामेवासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्तिनैकंधा स्मृता ॥२४५॥ मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरतः स्रक्ष्यति द्विजान् । अधीत्यध्यापने दानं प्रतिच्छेज्येति तरिक्रयाः ॥२४६॥
"शूद्रा शूद्रेण वोढव्या 'नान्या तास्वा च नैगमः ।
"वहेत् 'स्वां ते च राजन्यः" स्वां द्विजन्मा कचिच्च २ ताः ॥२४॥ स्वामिमा वृत्तिमुत्क्रम्य यस्स्वन्यां वृत्तिमाचरेत् । स पार्थिवैनियन्तग्यो।वर्णसंकीर्णिरन्यथा ॥२४॥
कृप्यादिकर्मषटकं च स्रष्टा प्रागेव सृष्टवान् । कर्मभूमिरियं तस्मात् तदासीत्तद्व्यवस्थया ॥२४९॥ इस तरह वे प्रजाका शासन करने लगे ॥२४२।। उस समय भगवान्ने अपनी दोनों भुजाओंमें शस्त्र धारण कर क्षत्रियोंकी सृष्टि की थी, अर्थात् उन्हें शस्त्रविद्याका उपदेश दिया था, सो ठीक ही है, क्योंकि जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओंके प्रहारसे निर्बलोंकी रक्षा करते हैं वे ही अत्रिय कहलाते हैं ॥२४॥ तदनन्तर भगवान्ने अपने ऊरओंसे यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकर वैश्योंकी रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल स्थल आदि प्रदेशोंमें यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है ॥२४४॥ हमेशा नीच (दैन्य) वृत्तिमें तत्पर रहनेवाले शूद्रोंकी रचना बुद्धिमान् वृषभदेवने पैरोंसे ही की थी क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्गों की सेवा-शुश्रूषा आदि करना ही उनकी अनेक प्रकारकी आजीविका है ।।२४५।। इस प्रकार तीन वर्गोंकी सृष्टि तो स्वयं भगवान् वृषभदेवने की थी, उनके बाद भगवान् वृषभदेवके बड़े पुत्र महाराज भरत मुखसे शाखोंका अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणोंकी रचना करेंगे, स्वयं पढ़ना, दूसरोंको पढ़ाना, दान लेना तथा पूजा यज्ञ आदि करना उनके क होंगे ॥२४॥ [ विशेष-वर्ण सृष्टिकी ऊपर कही हुई सत्य व्यवस्थाको न मानकर अन्य मतावलम्बियोंने जो यह मान रखा है कि ब्रह्माके मुखसे ब्राह्मण, भुजाओंसे क्षत्रिय, ऊरओंसे वैश्य
और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए थे सो वह मिथ्या कल्पना ही है। ] वर्णों की व्यवस्था तबतक सुरक्षित नहीं रह सकती जबतक कि विषाहसम्बन्धी व्यवस्था न की जाये, इसलिए भगवान वृषभदेवने विवाह व्यवस्था इस प्रकार बनायी थी कि शूद्र शूद्रकन्याके साथ हो विवाह करे, वह प्रामण, क्षत्रिय और वैश्यको कन्याके साथ विवाह नहीं कर सकता। वैश्य वैश्यकन्या तथा शुद्रकन्याके साथ विवाह करे, क्षत्रिय क्षत्रियकन्या, वैश्यकन्या और शूद्रकन्याके साथ विवाह करे, तथा प्रामण प्रामणकन्याकेसाथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देशमें वह क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कन्याओंके साथ भी विवाह कर सकता है ।।२४७। उस समय भगवान्ने यह भी नियम प्रचलित किया था कि जो कोई अपने वर्णकी निश्चित आजीविका छोड़कर दूसरे वर्णकी आजीविका करेगा वह राजाके द्वारा दण्डित किया जायेगा क्योंकि ऐसा न करनेसे वर्णसंकीर्णता होजायेगी अर्थात् सब वर्ण एक हो जायेंगे-उनका विभाग नहीं हो सकेगा॥२४८।। भगवान आदिनाथने विवाह आदिकी व्यवस्था करनेके पहले ही असि, मषि, कृषि, सेवा. शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मोकी व्यवस्था कर दी थी। इसलिए उक्त छह कर्मोकी
१. जीवनम् । २. कृषिपशुपालनवाणिज्यरूपया । ३. यतः कारणात् । ४. नीचवृत्तितत्परान् । ५. पादसंवाहनादो। ६. सेवारूपा। ७. सर्जनं करिष्यति । ८. अध्ययन । ९. प्रत्यादान। १०. शूद्रस्त्री। ११.परिणेतन्या। १२. शूद्राम् । स्वां तां च अ०,५०, स०, ल०। १३. वैश्याम् । १४. वैश्यः । १५. परिपयेत । १६. क्षत्रियाम् । १७. शूद्रां वैश्यां च । १८. क्षत्रियः। १९. ब्राह्मणीम् । २०. शूद्रादितिस्रः । शव भार्या श्द्रस्य सा च स्वा च विशःस्मृते । ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः ।। इति मनुस्मृती २१. दण्डपः । २२. संकरः । २३. यस्मात् । २४. षट्कर्मव्यवस्थया ।