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आदिपुराणम्
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तस्य पादद्वये लक्ष्मीः 'काय भूद०जशोभिनि । नखांशुस्त्रच्छसलिले सरसीव झषाकिते ॥१८३॥ इत्युदारतरं विश्रद् दिव्यं वैक्रियिकं वपुः । स तत्र बुभुजे मोगानच्युतेन्द्रः स्वकल्पजान् ॥ १८४॥ इतो रज्जूः षडुत्पत्य कल्पोऽस्त्यच्युतसंज्ञकः । सोऽस्य भुक्तिरभूत् पुण्यात् पुण्यैः किं नु न लभ्यते १८५ ॥ तस्य मुक्तौ विमानानां परिसंख्या मता जिनैः । शतमेकमयैकान् षष्टिश्च परमागमे ॥ १८६॥ त्रयोविंशं शतं तेषु विमानेषु प्रकीर्णकाः । श्रेणीबद्धास्ततोऽन्ये स्युरतिरुन्द्राः सहेन्द्रकाः ॥ १८७॥ त्रयस्त्रिंशदथास्य स्युस्त्रायस्त्रिंशाः सुरोत्तमाः । ते च पुत्रीयितास्तेन स्नेहनिर्भरया धिया ॥ १८८ ॥ "अयुतप्रमिताश्चास्य सामानिकसुरा मताः । ते ह्यस्य सदृशाः सर्वैः भोगैराज्ञा तु भिद्यते ॥ १४९॥ आत्मरक्षाश्च तस्योक्ताश्चत्वार्येवायुतानि वै । तेऽप्यङ्गरक्षकैस्तुल्या विभावायैव वर्णिताः ॥ १९० ॥ अन्तःपरिषदस्यार्था' सपाद' शतमिष्यते । मध्यमार्द्ध' 'तृतीयं स्याद् बाह्या तद्विगुणा मता ॥१९१॥ चत्वारो लोकपालाश्च तल्लोकान्तप्रपालकाः । प्रत्येकं च तथैतेषां देभ्यो द्वात्रिंशदेव हि ॥ १९२॥ अष्टावस्य महादेव्यो रूपसौन्दर्यसंपदा । तन्मनोलोहमाक्रष्टुं क्लृप्तायस्कान्तपुत्रिकाः ॥ १९३॥ भन्या वल्लमिकास्तस्य त्रिषष्टिः परिकीर्तिताः । एकशोऽग्रमहिष्यर्द्धतृतीय त्रिशतैर्वृता ॥ १९४ ॥
उस इन्द्रके दोनों चरण किसी तालाबके समान मालूम पड़ते थे क्योंकि तालाब जिस प्रकार जलसे सुशोभित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी नखोंकी किरणोंरूपी निर्मल जलसे सुशोभित थे, तालाब जिस प्रकार कमलोंसे शोभायमान होता है उसी प्रकार उसके चरण भी कमलके चिह्नोंसे सहित थे और तालाब जिस प्रकार मच्छ वगैरह से सहित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी मत्स्यरेखा आदिसे युक्त थे। इस प्रकार उसके चरणोंमें कोई अपूर्व ही शोभा थी ॥१८३॥ इस तरह अत्यन्त श्रेष्ठ और सुन्दर वैक्रियिक शरीरको धारण करता हुआ वह अच्युतेन्द्र अपने स्वर्गमें उत्पन्न हुए भोगोंका अनुभव करता था || १८४ ॥ | वह अच्युत स्वर्ग इस मध्यलोक छह राजु ऊपर चलकर है तथापि पुण्यके उदयसे वह सुविधि राजाके भोगोपभोगका स्थान हुआ सो ठीक ही है। पुण्यके उदयसे क्या नहीं प्राप्त होता ? ।। १८५ ।। उस इन्द्रके उपभोगमें आनेवाले विमानोंकी संख्या सर्वज्ञ प्रणीत आगममें जिनेन्द्रदेवने एक-सौ उनसठ कही है || १८६ | उन एक सौ उनसठ विमानों में एक सौ तेईस विमान प्रकीर्णक हैं, एक इन्द्रक विमान है और बाको पैंतीस बड़े-बड़े श्रेणीबद्ध विमान हैं ||१८७|| उन इन्द्रके तैंतीस त्रायशि जातिके उत्तम देव थे । वह उन्हें अपनी स्नेह-भरी बुद्धिसे पुत्रके समान समझता था || १८८|| उसके दश हजार सामानिक देव थे । वे सब देव भोगोपभोगकी सामग्रीसे इन्द्रके ही समान थे परन्तु इन्द्र के समान उनकी आज्ञा नहीं चलती ॥ १८९ ।। उसके अंगरक्षकोंके समान चालीस हजार आत्मरक्षक देव थे । यद्यपि स्वर्ग में किसी प्रकारका भय नहीं रहता तथापि इन्द्रकी विभूति दिखलानेके लिए ही वे होते हैं ।। १९० ॥ अन्तः परिषद्, मध्यमपरिषद् और बाह्यपरिषद् के भेदसे उस इन्द्रकी तीन सभाएँ थीं। उनमें से पहली परिषद् में एक सौ पच्चीस देव थे, दूसरी परिषद् में दो सौ पचास देव थे और तीसरी परिषद् में पाँच सौ देव थे ॥ १९९॥ उस अच्युत स्वर्ग के अन्तभागकी रक्षा करनेवाले चारों दिशाओंसम्बन्धी चार लोकपाल थे और प्रत्येक लोकपालकी बत्तीस-बत्तीस देवियाँ थीं ॥ १९२॥ उस अच्युतेन्द्रकी आठ महादेवियाँ थीं जो कि अपने वर्ण और सौन्दर्यरूपी सम्पत्तिके द्वारा इन्द्रके मनरूपी लोहेको खींचने के लिए बनी हुई पुतलियोंके समान शोभायमान होती थीं ॥ १९३ || इन आठ महादेवियोंके सिवाय उसके तिरसठ वल्लभिका देवियाँ और थीं
१. अब्जं लक्षणरूपकमलम् । २. मत्स्ययुक्ते । मत्स्यादिशुभलक्षणयुक्ते च । ३. भुक्तिः भुक्तिक्षेत्रम् । ४. - मथैकोन - अ०, प०, ५०, स० म०, ल० । ५. त्रयोविंशत्युत्तरशतम् । ६. दशसहस्र । ७. चत्वारिंशत्सहस्राणि । ८. -स्यान्या अ०, प०, स० द० । ९. पञ्चविंशत्युत्तरशतम् । १०. पञ्चाशदधिकद्विशतैः ।