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आदिपुराणम
प्रथमं पृथिवीमध्ये मृत्स्ना रचितवेदिकं । सुरशिल्पिसमारब्धपराद्धनन्दण्डपं ॥ १९९॥ रजचूर्णचय न्यस्तरङ्गबल्युपचित्रिते । प्रत्योद्भिन्नविक्षिप्तसुमनःप्रकराचिते ॥ २००॥ मणिकुट्टिमसंक्रान्तविम्ब मौफिकलम्बने । लसहितानकक्षौम च्छायाचित्रितरङ्गकं ॥ २०३॥ धृतमङ्गलनाकस्त्री रुद्वसंचारवर्तिनि [ वर्त्मनि ] । पर्यन्तनिहितानल्पभङ्गकद्रव्यसंपदि ॥ २०२ ॥ मुरवारवधूहस्त विधूतचलचामरे । अन्योन्यहस्तसंक्रान्तनानास्नानपरिच्छद् ॥२०३॥ सलीलपदविन्यास संचरन्नाककामिनी । रणन्नूपुरशंकार मुखरीकृत दिङ्मुखे ॥ २०४ ॥ नृपाङ्गणमहीर वृतमङ्गलसंग्रहे । निवेश्य प्राङ्मुखं देवमुचिते हरिविष्टरे ॥२०५०गन्धर्वारब्धसंगीत मृदंगामन्द्रनिःस्वने । त्रिविष्टपकुटीक्रोडमाक्रामति सक्तिटम् ॥२०६ नृत्यन्नाकाङ्गनापाठ्य निस्स्वनानुगतस्वरम् । गायन्तीषु यशो जिष्णोः किन्नरीषु श्रवस्सुखम् ॥२०७॥ ततोऽभिषेचनं मत्तः कत्तुमारेभिरेऽमराः । शातकुम्भविनिर्माणैः कुम्भैस्तीर्थाम्बुसंभृतैः ॥ २०८ ॥ गङ्गासिन्ध्वो महानद्येोरप्राप्य धरणीतलम् । प्रपाते हिमवत् कूटाइ यदम्बु समुपाहृतम् ॥ २०९॥ यच्च गाङ्गं पयः स्वच्छं गङ्गाकुण्डात् समाहृतम् । सिन्धुकुण्डादुपानीतं सिन्धोर्यत् कमपङ्ककम् ॥ २१०॥ "शेषन्योमापगानां च सलिलं यदनाविलम् । तत्तत्कुण्डलदापात समासादितजन्मकम् ॥ २३३ ॥
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'जय जीव', इस प्रकार की घोषणा कर रहे थे ।। १९८ ।। राज्याभिषेकके प्रथम ही पृथिवीके मध्यभागमें जहाँ मिट्टीकी वेदी बनायी गयी थी और उस वेदीपर जहाँ देव कारीगरोंने बहुमूल्यश्रेष्ठ आनन्दमण्डप बनाया था, जो रत्नोंके चूर्णसमूहसे बनी हुई रंगावलीसे चित्रित हो रहा था, जो नवीन खिले हुए बिखेरे गये पुष्पोंके समूह से सुशोभित था, जहाँ मणियोंसे जड़ी हुई जमीनमें ऊपर लटकते हुए मोतियोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, जहाँ रेशमी वस्खके शोभायमान
दो छायासे रंगभूमि चित्रित हो रही थी, जहाँ मंगल द्रव्योंको धारण करनेवाली देवांगनाओंसे आने-जाने का मार्ग रुक गया था, जहाँ समीपमें बड़े-बड़े मंगलद्रव्य रखे हुए थे, जहाँ देवोंकी अप्सराएँ अपने हाथोंसे चंचल चमर ढोल रही थीं, जहाँ स्नानकी सामग्रीको लोग परस्पर एक दूसरेके हाथमें दे रहे थे, जहाँ लीलापूर्वक पैर रखकर इधर-उधर चलती हुई देवांगनाओंके रुनझुन शब्द करते हुए नुपुरोंकी झनकार से दशों दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं, और जहाँ अनेक मंगलद्रव्योंका संग्रह हो रहा था ऐसे राजमहलके आँगनरूपी रंगभूमि में योग्य सिंहासनपर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान् वृषभदेवको बैठाया और जब गन्धर्व देवोंके द्वारा प्रारम्भ किए हुए संगीत के समय होनेवाला मृदंगका गम्भीर शब्द समस्त दिक्तटोंके साथ-साथ तीन लोकरूपी कुटीके मध्यमें व्याप्त हो रहा था तथा नृत्य करती हुई देवांगनाओंके पढ़े जानेवाले संगीत के स्वर में स्वर मिलाकर किन्नर जातिकी देवियाँ कानोंको सुख देनेवाला भगवानका यश गा रही थीं उस समय देवोंने तीर्थोदकसे भरे हुए सुवर्णके कलशोंसे भगवान् वृषभदेवका अभिषेक करना प्रारम्भ किया ।।१९९-२०८ || भगवान् के राज्याभिषेकके लिए गंगा और सिन्धु इन दोनों महानदियोंका वह जल लाया गया था जो हिमवत्पर्वतकी शिखर से धारा रूप में नीचे गिर रहा था तथा जिसने पृथिवीतलको छुआ तक भी नहीं था । भावार्थनीचे गिरने से पहले ही जो बरतनों में भर लिया गया था || २०९ || इसके सिवाय गंगाकुण्डसे गंगा नदीका स्वच्छ जल लाया गया था और सिन्धुकुण्डसे सिन्धु नदीका निर्मल जल लाया गया था ।। २२० ।। इसी प्रकार ऊपरसे पड़ती हुई अन्य नदियोंका स्वच्छ जल भी उनके गिरने के
१. रचित । २. नवविकसित । ३. दुकूल । ४. परिदरे । ५. मध्यम् । ६. गद्यपद्यादि । ७. जिनेन्द्रस्य । ८. श्रवणरमणीयम् यथा भवति तथा। ९. उपक्रमं चक्रिरे । १०. जलम् । ११. रोहिट्रोहितास्यादीनाम् । १२. अकलुषम् । १३. तानि च तानि कुण्डानि । १४. सम्प्राप्तजननम् ।