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आदिपुराणम्
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दशग्राम्यास्तु मध्ये यो महान् ग्रामः स संग्रहः । तथा 'घोषकरादीनामपि लक्ष्म विकरूप्यताम् ॥१७६॥ पुरं विभागमित्युच्चैः कुर्वन् गीर्वाणनायकः । तदा पुरन्दरख्यातिमगादन्वर्थतां गताम् ॥ १७७॥ ततः प्रजा निवेश्यैषु स्थानेषु स्रष्टुराशया । जगाम कृतकार्यों गां मघवानुज्ञया प्रमोः ॥ १७८ ॥ असिषः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ॥ १७९ ॥ तत्र वृत्तिं प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपादिशत् सरागो हि स तदासीजगद्गुरुः ॥ १८०॥ तत्रासिकर्म सेवायां मषिलिंपिविधौ स्मृता । कृषिभूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने ॥ १८१ ॥ वाणिज्यं वणिजां कर्म शिल्पं स्यात् करकौशलम् । तच्च चित्रकलापत्रच्छेदादि बहुधा स्मृतम् ॥ १८२ ॥ उत्पादितास्त्रयो वर्णास्तदा तेनादिवेधसा । क्षत्रिया वणिजः शूखाः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥ १८३ ॥ क्षत्रियाः शस्त्रजोवित्वमनुमय तदाभवन् । वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपाशुपाल्योपजीविताः ॥ १८४ ॥ तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः । कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ॥ १८५ ॥ कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । तत्रास्पृश्या प्रजाबायाः स्पृश्याः स्युः कर्त्तकादयः ॥ १८६॥
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घोष (अहीर) रहते हैं उसे घोष कहते हैं और जहाँपर सोने चाँदी आदिकी खान हुआ करती है उसे आकर कहते हैं ।। १७५ - १७६ ।। इस प्रकार इन्द्रने बड़े अच्छे ढंगसे नगर, गाँवों आदिका विभाग किया था इसलिए वह उसी समय से पुरन्दर इस सार्थक नामको प्राप्त हुआ था ॥ १७७॥ तदनन्तर इन्द्र भगवान्की आज्ञासे इन नगर, गाँव आदि स्थानोंमें प्रजाको बसाकर कृतकृत्य होता हुआ प्रभुकी आज्ञा लेकर स्वर्गको चला गया ॥ १७८॥ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजाकी आजीविका कारण हैं। भगवान् वृषभदेवने अपनी बुद्धिकी कुशलतासे प्रजाके लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति (आजीविका) करनेका उपदेश दिया था सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान् सरागी ही थे वीतराग नहीं थे। भावार्थसांसारिक कार्योंका उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है ।।१७९-१८०।। उन छह कर्मों में से तलवार आदि शस्त्र धारणकर सेवा करना असिकर्म कहलाता है, लिखकर आजीविका करना मषिकर्म कहलाता है, जमीनको जोतना - बोना कृषिकर्म कहलाता है, शास्त्र अर्थात् पढ़ाकर या नृत्य-गायन आदिके द्वारा आजीविका करना विद्याकर्म है, व्यापार करना वाणिज्य है और हस्तकी कुशलतासे जीविका करना शिल्पकर्म है वह शिल्पकर्म चित्र खींचना, फूल-पत्ते काटना आदिकी अपेक्षा अनेक प्रकारका माना गया है ।। १८१-१८२।। उसी समय आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि क्षतत्राण अर्थात् विपत्तिसे रक्षा करना आदि गुणोंके द्वारा क्रमसे क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते थे || १८३|| उस समय जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए, जो खेती व्यापार तथा पशुपालन आदिके द्वारा जीविका Sardaar कहलाते थे और जो उनकी सेवा-शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शूद्र दो प्रकार के थे - एक कारु और दूसरा अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे । कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्यके भेदसे दो प्रकारके माने गये हैं। उनमें जो प्रजासे बाहर रहते हैं उन्हें अस्पृश्य अर्थात् स्पर्श करनेके अयोग्य कहते हैं और नाई
१. दशग्रामसमाहारस्य । २. "घोष आभीरपल्ली स्यात्" इत्यमरः ।
३. नगराणाम् । ४. स्वर्गम् ।
५. हेतवे अ० म०, ल० । ६. उपादिशत् म०, ल० । ७ पत्रच्छेद्यादि अ०, प०, स० म०, ५०, ल० । ८. - जीविनः अ०, प०, म०, ब०, ल० । ९ 'शालिको मालिकश्चैव कुम्भकार' स्तिलंतुदः । नापितश्चेति पञ्चमी....... भवन्ति स्पृष्यकारुकाः ॥ रजकस्तक्षकश्चैवायस्कारो लोह्कारकः । स्वर्णकारश्च पञ्चैते भवन्त्यस्पृश्य कारुकाः ॥ " [ एतौ श्लोको 'द' पुस्तकेऽप्युल्लिखितो ] ।