________________
षोडशं पर्व
यथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसंकरम् । विवाहजातिसंबन्धव्यवहारश्च तन्मतम् ॥ १८७ ॥ यावती जगती वृत्तिरपापोपहता च या i सा सर्वास्य मतेनासीत् स हि धाता 'सनातनः ॥ १८८ ॥ युगादिब्रह्मणा तेन यदिरथं स कृतो युगः । ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ॥ १८९॥ आषाढमास बहुल प्रतिपदिवसे कृती । कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ॥ १९० ॥ कियत्यपि गते काले षट्कर्मविनियोगतः । यदा सौस्थित्यमायाताः प्रजाः क्षमण यांजिताः ॥ १९३॥ तदास्याविरभूद् द्यावापृथिन्योः प्राभवं महत् । आधिराज्येऽभिषिक्तस्य सुरेरागत्य सत्वरम् ॥ १९२॥ सुरैः कृतादरैर्दिव्यैः सलिलैरादिवेधसः । कृतोऽभिषेक इत्येव वर्णनास्तु किमन्यया ॥१९३॥ तथाप्यते किंचित् तद्गतं वर्णनान्तरम् । सुप्रतीतमपि प्रायो यन्नावैति पृथग्जनः ॥ १९४ ॥ तदा किल जगद्विश्वं बभूवानन्दनिर्भरम् । दिवोऽवा तारिषुदेवाः पुरोधाय पुरंदरम् ॥ १९५॥ कृतोपशोभमभवत् पुरं साकेतसाह्वयम् । हर्म्याप्रभूमिका बद्ध केतुमालाकुलाम्बरम् ॥१९६॥ तदानन्द महाभयः प्रणेदुर्नृपमन्दिरे । मङ्गलानि जगुर्वारनार्यो नेटुः सुराङ्गनाः ॥ १९७॥ सुरवैतालिका: " पेडु" रुत्साहान् सह मङ्गलैः । प्रचक्रुरमरास्तोषाज्जय जीवेति घोषणाम् ॥ १९८ ॥
७
३६३
वगैरहको स्पृश्य अर्थात् स्पर्श करनेके योग्य कहते हैं ।। १८४-२८६ ।। उस समय प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मोंको यथायोग्य रूपसे करती थी । अपने वर्णकी निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई दूसरी आजीविका नहीं करता था इसलिए उनके कार्यों में कभी शंकर (मिलावट) नहीं होता था । उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान आदिनाथकी आज्ञानुसार ही होते थे ।१८७।। उस समय संसार में जितने पापरहित आजीविकाके उपाय थे वे सब भगवान् वृषभदेवकी सम्मतिमें प्रवृत्त हुए थे सो ठीक है क्योंकि सनातन ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ही हैं || १८८|| चूँकि युगके आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने इस प्रकार कर्मयुगका प्रारम्भ किया था इसलिए पुराणके जाननेवाले उन्हें कृतयुग नामसे जानते हैं || १८९|| कृतकृत्य भगवान् वृषभदेव आषाढ़ मास के कृष्णपक्षकी प्रतिपदा के दिन कृतयुगका प्रारम्भ करके प्राजापत्य (प्रजापतिपने) को प्राप्त हुए थे अर्थात् प्रजापति कहलाने लगे थे || १२०|| इस प्रकार जब कितना ही समय व्यतीत हो गया और छह कर्मोंकी व्यवस्थासे जब प्रजा कुशलतापूर्वक सुखसे रहने लगी तब देवोंने आकर शीघ्र ही उनका सम्राट पदपर अभिषेक किया उस समय उनका प्रभाव स्वर्गलोक और पृथिवीलोक में खूब ही प्रकट हो रहा था ।। १९१-१९२ ।। यद्यपि भगवान् के राज्याभिषेकका अन्य विशेष वर्णन करनेसे कोई लाभ नहीं है इतना वर्णन कर देना ही बहुत हैं कि आदरसे भरे हुए देवोंने दिव्य जलसे उन आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवका अभिषेक किया था तथापि उसका कुछ अन्य वर्णन कर दिया जाता है क्योंकि प्रायः साधारण मनुष्य अत्यन्त प्रसिद्ध बातको भी नहीं जानते हैं ।।१९३-१९४॥ | उस समय समस्त संसार आनन्दसे भर गया था, देवलोग इन्द्रको आगे कर स्वर्गसे अवतीर्ण हुए थे-उतरकर अयोध्यापुरी आये थे । १९५ ।। उस समय अयोध्यापुरी खूब ही सजायी गयी थी । उसके मकानोंके अग्रभागपर बाँधी गयी पताकाओंसें' समस्त आकाश भर गया था ।। ९९६ ।। उस समय राजमन्दिर में बड़ी आनन्द-भेरियाँ बज रही थीं, वारस्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं और देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं ॥१९७ देवोंके बन्दीजन मंगलोंके साथ-साथ भगवान् के पराक्रम पढ़ रहे थे और देवलोग सन्तोष से
१. दध्यु- म०, ल० । २. तत्पुरुनाथमतं यथा भवति तथा। ३. जगतो वृत्ति- अ०, प०, स० म० द० । ४. नित्यः । ५. उच्यते । ६. अभिषेकप्राप्तम् । ७. साधारणजनः । ८. अवतरन्ति स्म । ९. अ कृत्वा । १०. बोध कराः ११. वीर्याणि ।