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आदिपुराणम् स पित्रोः परमानन्दं बन्धुतायाश्च निर्वृतिम्' । जगजनस्य संप्रीतिं वर्धयन् समवर्द्धत ॥१८६॥ परमायुरथास्याभूत् चरमं विभ्रतो वपुः । संपूर्णा पूर्वलक्षाणामशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१८॥ दीर्घदी सुदीर्घायुदीर्घबाहुश्च. दीर्घदृक् । स दीर्घसूत्रों लोकानामभजत् सूत्रधारताम् ॥१८॥ कदाचिल्लिपिसंख्यान गन्धर्वादिकलागमम् । स्वभ्यस्तपूर्वमभ्यस्यन् स्वयमभ्यासयत् परान् ॥१८९॥ छन्दोऽवचित्यलङ्कारप्रस्तारादिविवेचनैः । कदाचिद् भावयन् गोष्ठीश्चित्रायैश्च कलागमैः ॥१९॥ कदाचित् पद गोष्ठीमिः काम्यगोष्ठीमिरन्यदा । "वावकैः समं कैश्चित् जल्पगोष्ठीभिरेकदा ॥१९॥ कर्हिचिद् गीतगोष्ठीमित गोडीभिरेकदा । काचिद् वाचगोष्ठीमिर्वीणागोष्टीभिरन्यदा ॥१९॥ कर्हि चिद् बर्हिरूपेण नटतः सुरचेटकान् । नटयन् करतालेन लयमार्गानुयायिना ॥१९३॥ कांश्विञ्च शुकरूपेण समासादितविक्रियान् । संपाउं पाठयंछ्लोकानम्लिष्टे मधुराक्षरम् ॥१९॥ हंसविक्रियया कांश्चित् कूजतो मन्द्रगद्गदम् । "विसमतः स्वहस्तेन दत्तः संभावयन्मुहुः ॥१९५॥ गजविक्रियया कांश्चिद् दधतः कालमी दशाम् । सान्वयन्मुहुरानाय "[राना थ्यकरमा क्रीडयन्मुदा
बढ़ते जाते थे त्यों-त्यों समस्त जनसमूह और उनके परिवारके लोग हर्षको प्राप्त होते जाते थे ॥ १८५॥ इस प्रकार वे भगवान् माता-पिताके परम आनन्दको, बन्धुओंके सुखको और जगतके समस्त जीवोंकी परम प्रीतिको बढ़ाते हुए वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे।।१८६।। चरम शरीरको धारण करनेवाले भगवानकी सम्पूर्ण आयु चौरासी लाख पूर्वकी थी ॥१८७।। वे भगवान् दीर्घदर्शी थे, दीर्घ आयुके धारक थे, दीर्घ भुजाओंसे युक्त थे, दीर्घ नेत्र धारण करनेवाले थे और दीर्घ सूत्र अर्थात् दृढ़ विचारके साथ कार्य करनेवाले थे इसलिए तीनों ही लोकोंकी सूत्रधारता-गुरुत्वको प्राप्त हुए थे॥१८८॥ भगवान् वृषभदेव कभी तो, जिनका पूर्वभवमें अच्छी तरह अभ्यास किया है ऐसे लिपि विद्या, गणित विद्या तथा संगीत आदि कलाशास्त्रोंका स्वयं अभ्यास करते थे और कभी दूसरोंको कराते थे ॥१८९॥ कभी छन्दशास्त्र, कभी अलंकार शास्त्र, कभी प्रस्तार नष्ट उद्दिष्ट संख्या आदिका विवेचन और कभी चित्र खींचना आदि कला शास्त्रोंका मनन करते थे ॥ १९० ॥ कभी वैयाकरणोंके साथ व्याकरणसम्बन्धी चर्चा करते थे, कभी कवियोंके साथ काव्य विषयकी चर्चा करते थे और कभी अधिक बोलनेवाले वादियोंके साथ वाद करते थे ॥ १९१ ।। कभी गीतगोष्ठी, कभी नृत्यगोष्ठी, कभी वादित्रगोष्ठी और कभी वीणागोष्ठीके द्वारा समय व्यतीत करते थे। १९२ ।। कभी मयूरोंका रूप धरकर नृत्य करते हुए देवकिंकरोंको लयके अनुसार हाथकी ताल देकर नृत्य कराते थे ॥१९३।। कभी विक्रिया शक्तिसे तोतेका रूप धारण करनेवाले देवकुमारोंको स्पष्ट और मधुर अक्षरोंसे श्लोक पढ़ाते थे ॥१९४॥ कभी हंसकी विक्रिया कर धीरे-धीरे गद्गद बोलीसे शब्द करते हुए हंसरूपधारी देवोंको अपने हाथसे मृणालके टुकड़े देकर सम्मानित करते थे ॥१९५।। कभी विक्रियासे हाथियोंके बच्चोंका रूप धारण करनेवाले देवोंको सान्त्वना देकर या सूंडमें प्रहार कर उनके साथ आनन्दसे क्रोड़ा करते थे ॥१९६।।
१. सुखम् । २. सम्यग् विचार्य वक्ता। ३. विशालाक्षः । ४. स्थिरीभूय कार्यकारी इत्यर्थः । ५. गणि- तम् । -संख्यानं १०, ८०, म०,ल० ।-संख्याना-अ०, स०, । ६.कलाशस्त्रम् । ७. सुष्ठु पूर्वस्मिन् अभ्यस्तम् ।
८. छन्दःप्रतिपादकशास्त्रम् । छन्दोऽवचिन्त्यालङ्कार-१०, ल०। ९. विवरणः। १०. व्याकरणशास्त्रगोष्ठीभिः । ११. वाग्मिभिः । १२.-नत्य-अ०। १३. व्यक्तम् । सुश्लिष्ट-प० । -नाश्लिष्ट-अ, ल०। १४. ध्वनि कुर्वतः । १५. मन्द -अ०, स०, द०,ल० । १६. विसखण्डः । १७. कलभसंबन्धिनीम् । १८. अनुनयन् । १९.-रानाय्य अ०, ५०, स० । रानाध्य ६० ।-रानाड्य म०, ल.। २०. संप्रार्थ्य । २१. शुण्डादण्डमानर्तयन ।