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पञ्चदशं पर्व
३४५ शार्दूलविक्रीडितम् इत्यानन्दपरम्परां प्रतिदिनं संवर्द्धयन् स्वैर्गुणैः पित्रोर्बन्धुजनस्य च प्रशमयल्लोकस्य दुःखासिकाम् । नाभेयोदयभूधरादधरित क्षोणीभरा [धरा] दुद्गतः प्रालेयांशुरिवाबभौ भरतराइ भूलोकमुद्भासयन् ॥ श्रीमान् हेमशिलाघनैरपघन मांशुः प्रकृत्या गुरुः पादाक्रान्तधरातलो गुरुभरं वोढुं क्षमायाः क्षमः ॥ हारं निर्झरचारुकान्तिमुरसा विभ्रत्तटस्पढिना चक्राऊडयभूधरः स रुरुचे मौलीद्धकूटोद्धरः ॥२२३॥ संपश्यन्नयनोत्सवं सुरुचिरं तद्वक्त्रमप्राकृतं संशृण्वन् कलनिक्कणं श्रुतिसुखं सप्रश्रयं तद्वचः । आश्लिप्यन् प्रणतोस्थित महरमुस्वोत्संगमारोपयन् श्रीमाजाभिसतः परांतिमगाद वरस्य जिनश्रीविभुः । इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भगवत्कुमारकालयशस्वतीसुनन्दा
_ विवाहभरतात्पत्तिवर्णनं नाम पञ्चदशे पर्व ॥१५॥ प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें पहले पुण्यका संचय करना चाहिए ।।२२।। इस प्रकार वह भरत चन्द्रमाके समान शोभायमान हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा अपने शीतलता, सुभगता आदि गुणोंसे सबके आनन्दकी परम्पराको बढ़ाता है उसी प्रकार वह भरत भी अपने दया, उदारता, नम्रता आदि गुणोंसे माता-पिता तथा भाईजनोंके आनन्दकी परम्पराको प्रतिदिन बढ़ाता रहता था, चन्द्रमा जिस प्रकार लोगोंको दुःखमय परिस्थितिको शान्त करता है उसी प्रकार वह भरत भी लोगोंकी दुःखमय परिस्थितिको शान्त करता था, चन्द्रमा जिस प्रकार समस्त पर्वतोंको नोचा करनेवाले पूर्वाचलसे उदित होता है उसी प्रकार वह भरत भी समस्त राजाओंको नीचा दिखानेवाले भगवान ऋषभदेवरूपी पूर्वाचलसे उदित हुआ था और चन्द्रमा जिस प्रकार समस्त भूलोकको प्रकाशित करता है उसी प्रकार भरत भी समस्त भूलोकको प्रकाशित करता था ।।२२२॥ अथवा वह भरत, चक्ररूपी सूर्यको उदय करनेवाले उदयाचलके समान सुशोभित होता था क्योंकि जिस प्रकार उदयाचल पर्वत सुवर्णमय शिलाओंसे सान्द्र अवयवोंसे शोभायमान होता है उसी प्रकार वह भरत भी सुवर्णके समान सुन्दर मजबूत शरीरसे शोभायमान था, जिस प्रकार उदयाचल ऊँचा होता है उसी प्रकार वह भरत भी ऊँचा ( उदार ) था, उदयाचल जिस प्रकार स्वभावसे ही गुरु-भारी होता है उसी प्रकार वह भरत भी स्वभावसे ही गुरु (श्रेष्ठ) था, उदयाचल पर्वतने जिस प्रकार अपने समीपवर्ती छोटे-छोटे पर्वतोंसे पृथ्वीतलपर आक्रमण कर लिया है उसी प्रकार भरतने भी अपने पाद अर्थात् चरणोंसे दिग्विजयके समय समस्त पृथिवीतलपर आक्रमण किया था, उदयाचल जिस प्रकार पृथिवीके विशाल भारको धारण करनेके लिए समर्थ है उसी प्रकार भरत भी पृथिवीका विशाल भार धारण करनेके लिए (व्यवस्था करनेके लिए) समर्थ था, उदयाचल जिस प्रकार अपने तटभागपर निर्झरनोंकी सुन्दर कान्ति धारण करता है उसी प्रकार भरत भी तटके साथ स्पर्धा करनेवाले अपने वक्षःस्थलपर हारोंकी सुन्दर कान्ति धारण करता था, और उदयाचल पर्वत जिस प्रकार देदीप्यमान शिखरोंसे सुशोभित रहता है उसी प्रकार वह भरत भी अपने प्रकाशमान मुकुटसे सुशोभित रहता था ।।२२।। जिन्हें अरहन्त पदकी लक्ष्मी प्राप्त होनेवाली है ऐसे भगवान् वृषभदेव, नेत्रोंको आनन्द देनेवाले, अत्यन्त सुन्दर और असाधारण भरतके मुखको देखते हुए, कानोंको सुख देनेवाले तथा विनयसहित कहे हुए उसके मधुर वचनोंको सुनते हुए, प्रणाम करनेके बाद उठे हुए भरतका बार-बार आलिंगन कर उसे अपनी गोद में बैठाते हुए परम सन्तोषको प्राप्त होते थे ।। २२४ ।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में
भगवानका कमारकाल, यशस्वती और सनन्दाका विवाह तथा भरतकी
उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला पन्द्रहवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥१५॥ १. अधःकृतभूपतेः अधःकृतभूधराच्च । २. -शोणिषरादुद्गतः १०, म०, ल.। ३. अवयवः । ४. उन्नतः । ५. चरणाक्रान्तं प्रत्यन्तपर्वताकान्त च । ६. अधिकः । ७. प्रभुः स०।