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आदिपुराणम् सुकण्ठ्यौ कोकिलालापनि रिमधुरस्वरे । 'ताम्राधरे दरोगिन्नस्मितांशुरुचिरानने ॥८५।। - सुदस्यौं ललितापाङ्गवीक्षिते सान्द्रपक्ष्मणी । मदनस्येव जैत्राने दधाने नयनोत्पले ॥८६॥
कसस्कपोकसंक्रान्तैरलकप्रतिबिम्बकैः । ढपयन्त्यावमिव्यक्तलक्ष्मणः शशिनः श्रियम् ॥८७॥ समाल्यं कबरीमारं धारयन्त्यौ तरङ्गितम् । स्वान्तः संक्रान्तगागौघं प्रवाहमिव यामुनम् ॥८॥ इति प्रत्यासंगिन्या कान्स्या कान्ततमाकृती । सौन्दर्यस्येव सन्दोहमेकीकृत्य विनिर्मिते ॥८६।। किमेते दिव्यकन्ये स्तां किन्नु कम्ये फणीशिनाम् । दिक्कन्ये किमुत स्यातां किं वा सौमाग्यदेवते ॥१०॥ किमिमे श्रीसरस्वत्यौ किं वा तदधिदेवते । किं स्या तदवतारोऽयमेवंरूपः प्रतीयते ॥९॥ लक्ष्याविमे जगन्नाथमहावाः किमुद्गते । कल्याणागिनी च स्याद् भनयोरियमाकृतिः ॥१२॥ इति संश्लाघ्यमाने ते जनैरुत्पन्नविस्मयैः । सप्रश्रयमुपाश्रित्य जगन्नाथं प्रणेमतुः ॥९३।। प्रणते ते समुत्थाप्य दूरान्नमितमस्तके । प्रीत्या स्वमकमारोप्य स्पृष्ट्वाघ्राय च मस्तके ॥९॥ साहासमुवाचैवमेतं मन्ये सुरैः समम् । यास्यथोऽयामरोधानं नैवमेते गताः सुराः ॥१५॥
इस्याक्रीड्य क्षणं भूयोऽप्येवमाख्यद् गिरांपतिः । युवां युवजस्स्यौ स्थः शोलेन विनयेन च ॥१६॥ स्तनोंके आलिंगनसे उत्पन्न हुए सुखकी आसक्तिसे हँस ही रहा हो ॥४॥उनके कण्ठ बहुत ही सुन्दर थे, उनका स्वर कोयलकी वाणीके समान मनोहर और मधुर था, ओठ ताम्रवर्ण अर्थात् कुछ-कुछ लाल थे, और मुख कुछ-कुछ प्रकट हुए मन्दहास्यकी किरणोंसे मनोहर थे ।।८५।। उनके दाँत सुन्दर थे, कटाक्षों-द्वारा देखना मनोहर था, नेत्रोंकी बिरौनी सघन थी और नेत्ररूपी कमल कामदेवके विजयी अत्रके समान थे ॥८६॥ शोभायमान कपोलोंपर पड़े हुए केशोंके प्रतिबिम्बसे वे कन्याएँ, जिसमें कलंक प्रकट दिखायी दे रहा है ऐसे चन्द्रमाकी शोभाको भी लज्जित कर रही थीं ।।८७॥ वे मालासहित जिस केशपाशको धारण कर रही थीं वह ऐसा मालूम होता था मानो जिसके भीतर गंगा नदीका प्रवाह मिला हुआ है ऐसा यमुना नदीका लहराता हुआ प्रवाह ही हो ॥८८।। इस प्रकार प्रत्येक अंगमें रहनेवाली कान्तिसे उन दोनोंकी आकृति अत्यन्त सुन्दर थी और उससे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो सौन्दर्यके समूहको एक जगह इकट्ठा करके ही बनायी गयी हों ।।८९॥ क्या ये दोनों दिव्य कन्याएँ हैं ? अथवा नागकन्याएँ हैं ? अथवा दिकन्याएँ हैं ? अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं, अथवा लक्ष्मी और सरस्वती देवी हैं अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं ? अथवा उनका अवतार हैं ? अथवा क्या जगन्नाथ (वृषभदेव) रूपी महासमुद्रसे उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं ? क्योंकि इनकी यह आकृति अनेक कल्याणों
अनुभव करनेवाली है इस प्रकार लोग बड़े आश्चर्यके साथ जिनकी प्रशंसा करते हैं ऐसी उन दोनों कन्याओंने विनयके साथ भगवान के समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया ॥९०-९३॥ दूरसे ही जिनका मस्तक नम्र हो रहा है ऐसी नमस्कार करती हुई उन दोनों पुत्रियोंको उठाकर भगवान्ने प्रेमसे अपनी गोद में बैठाया, उनपर हाथ फेरा, उनका मस्तक सुंघा और हँसते हुए उनसे बोले कि आओ, तुम समझती होगी कि हम आज देवांके साथ अमरवनको जायेंगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि देव लोग पहले ही चले गए हैं ॥९४-९५॥ इस प्रकार भगवान् वृषभदेव क्षणभर उन दोनों पुत्रियोंके साथ क्रीड़ा कर फिर कहने लगे कि तुम अपने शील और विनयगुणके कारण युवावस्थामें भी वृद्धाके समान हो ॥९६ ।।
१. ताम्र अरुण । २. दर ईषत् । ३. शोभनदन्तवत्यो। सुदन्त्यो अ०, स०।४. भवताम् । ५. श्रीसरस्वत्योरधिदेवते। ६. अषिदेवतयोरवतारः। ७आगच्छन्तम् । लोटि मध्यमपुरुषः । ८. गमिष्यथः। . ९. भवथः ।