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षोडशं पर्व श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशयः । मन: 'प्रणिदधावेवं भगवानादिपूरुषः ॥१४२॥ पूर्वापरविदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता । साय प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूः प्रजाः ॥१४॥ षटकर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः । यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च पृथग्विधाः ॥१४४॥ तथात्राप्युचिता वृत्तिरुपायैरेमिरङ्गिनाम् । नोपायान्तरमस्त्येषां प्राणिनां जीविकां प्रति ॥१४५॥ कर्मभूरद्य जातेयं व्यतीतौ कल्पभूरुहाम् । ततोऽत्र कर्ममिः षड्भिः प्रजानां जीविकोचिता ॥१४६।। इत्याकलय्य तत्क्षेमवृत्युपायं क्षणं विभुः । मुहुराश्वासयामास मा भैप्टेति तदा प्रजाः ॥१४७॥ अथानुध्यानमात्रेण विभो शक्रः सहामरैः । प्राप्तस्तज्जीवनोपायानित्यकार्षी द्विमागतः ॥१४८॥ शुभे दिने सुनक्षत्रे सुमुहूतें शुभोदये । स्वोच्चस्थेषु ग्रहेपूच्चैरानुकूल्ये जगद्गुरोः ॥१४९॥ कृतप्रथममाङ्गल्ये सुरेन्द्रो जिनमन्दिरम् । न्यवेशयत् पुरस्यास्य मध्ये विश्वप्यनुक्रमात् ॥१५०॥ कोसलादीन् महादेशान् साकेतादिपुराणि च । सारामसीमनिगमान् खेटादींश्च न्यवेशयत् ॥१५॥ देशाः सुकोसलावन्तीपुण्डो प्राश्मकरम्यकाः । कुरुकाशीकलिङ्गाङ्गवङ्गसुमाः समुद्रकाः ॥१५२॥ काश्मीरोशीनरानर्तवत्सपञ्चालमालवाः । दशार्णाः कच्छमगधा विदर्भाः कुरुजाङ्गलम् ॥१५॥.....
प्रयत्न कीजिए और हम लोगोंपर प्रसन्न हूजिए ॥१४१॥ इस प्रकार प्रजाजनोंके दीन वचन सुनकर जिनका हृदय दयासे प्रेरित हो रहा है ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मनमें ऐसा विचार करने लगे ।।१४२॥ कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्रमें जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसीसे यह प्रजा जीवित रह सकती है ।।१४३॥ वहाँ जिस प्रकार असि मषी आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्गों की स्थिति है और जैसी ग्राम-घर आदिकी पृथक-पृथक रचना है उसी प्रकार यहाँपर भी होनी चाहिए । इन्हीं उपायोंसे प्राणियोंकी आजीविका चल सकती है। इनकी आजीविकाके लिए और कोई उपाय नहीं है ॥१४४-१४५।। कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है, इसलिए यहाँ प्रजाको असि, मषी आदि छह कर्मोके द्वारा ही आजीविका करना उचित है ॥१४६। इस प्रकार स्वामी वृषभदेवने क्षणभर प्रजाके कल्याण करनेवाली आजीविकाका उपाय सोचकर उसे बार बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ॥१४७॥ अथानन्तर भगवान्के स्मरण करने मात्रसे देवोंके साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजाकी जीविकाके उपाय किये ॥१४८। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्नके समय तथा सूर्य आदि ग्रहोंके अपने अपने उच्च स्थानोंमें स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान्के हर एक प्रकारको अनुकूलता होनेपर इन्द्रने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्या पुरीके बीचमें जिनमन्दिरकी रचना की । इसके बाद पूर्व दक्षिण पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओंमें भी यथाक्रमसे जिनमन्दिरोंकी रचना की ॥१४९-१५०।। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमासहित गाँव तथा खेड़ों आदिकी रचना की थी॥१५१।। सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड, उण्डू, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, वंग, सुहा, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र,सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण,वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कोशल, चोल,केरल,
१. एकाग्रं चकार । २. सन्निवेशाः । रचनाविशेष इत्यर्थः । ३. नानाविधाः । ४. प्रभुः । ५. स्मरण ।. ६. विभागशः अ०, ५०, ६०, स० ट.1 विभागात् । ७. पुण्डोडा-। ८. -वर्त- अ०, १०,६०। ९. कुरुजाङ्गलाः स०।