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षोडशं पर्व
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यष्टिः शीर्षकसंज्ञा स्यात् मध्यैकस्थूल मौक्तिका । मध्यैस्त्रिभिः क्रमस्थूलैः मौकिकैरुपशीर्षकम् ॥ ५२ ॥ प्रकाण्डकं क्रमस्थूलैः पञ्चभिर्मध्यमौक्तिकैः । मध्यादनुक्रमान्द्वोनैः मौक्तिकैरव घाटकम् ॥५३॥ तरलप्रतिबन्धः स्यात् सर्वत्र सममौक्तिकैः । तथैव मणियुक्तानामूया भेदास्त्रिधात्मनाम् ॥५४॥ हारो यष्टिकलापः स्यात् स चैकादशधा मतः । इन्द्रच्छन्दादिभेदेन यष्टिसंख्याविशेषतः ॥ ५५ ॥ यष्टयोऽष्टं सहस्रं तु यत्रेन्द्रच्छन्दसंज्ञकः । स हारः परमोदारः शक्रचक्रजिनेशिनाम् ॥ ५६ ॥ तदर्द्धप्रमितो यस्तु विजयच्छन्दसंज्ञकः । सोऽर्द्धचक्रधरस्योको हारोऽन्येषु च केषुचित् ॥५७॥ शतमष्टोत्तरं यत्र यष्टीनां हार एव सः । एकाशीत्या भवेद् देवच्छन्दो मौलिकयष्टिभिः ॥ ५८ ॥ चतुःषष्टयार्धहारः स्याच्चतुःपञ्चाशता पुनः । भवेद् रश्मिकलापाख्यो गुच्छो द्वात्रिंशता मतः ॥५९॥ टीनां सप्तविंशत्या भवेनक्षत्रमालिका । शोभां नक्षत्रमालाया या हसन्ती स्वमौक्तिकैः ॥ ६० ॥ चतुर्विंशत्यार्द्धगुच्छो विंशत्या माणवाह्वयः । भवेन्मौक्तिकयष्टीनां तदर्द्धनार्द्धमाणवः ॥ ६१ ॥ इन्द्रच्छन्दादिहारास्ते यदा स्युर्मणिमध्यमाः । माणवाख्या विभूषाः स्युस्तत्पदोपपदास्तदा ॥६२॥
बीचमें अन्तर दे-देकर गूँथी जाती है उसे अपवर्तिका कहते हैं ||५१ || जिसके बीच में एक बड़ा स्थूल मोती हो उसे शीर्षक यष्टि कहते हैं और जिसके बीचमें क्रम-क्रमसे बढ़ते हुए तीन मोती हों उसे उपशीर्षक कहते हैं ||५२ || जिसके बीच में क्रम क्रमसे बढ़ते हुए पाँच मोती लगे हों उसे प्रकाण्डक कहते हैं, जिसके बीच में एक बड़ा मणि हो और उसके दोनों ओर क्रम-क्रमसे घटते हुए छोटे-छोटे मोती लगे हों उसे अवघाटक कहते हैं ॥५३॥ और जिसमें सब जगह एक समान मोती लगे हों उसे तरलप्रतिबन्ध कहते हैं। ऊपर जो एकावली, रत्नावली और अपवर्तिका ये मणियुक्त यष्टियोंके तीन भेद कहे हैं उनके भी ऊपर लिखे अनुसार प्रत्येकके शीर्षक, उपशीर्षक आदि पाँच-पाँच भेद समझ लेना चाहिए ॥ ५४ ॥ यष्टि अर्थात् लड़ियोंके समूहको हार कहते हैं वह हार लड़ियोंकी संख्याके न्यूनाधिक होनेसे इन्द्रच्छन्द आदि के भेदसे ग्यारह प्रकारका होता है ||५५|| जिसमें एक हजार आठ लड़ियाँ हों उसे इन्द्रच्छन्द हार कहते हैं । वह हार सबसे उत्कृष्ट होता है और इन्द्र चक्रवर्ती तथा जिनेन्द्रदेवके पहननेके योग्य होता है ||५६ || जिसमें इन्द्रच्छन्द हारसे आधी अर्थात् पाँचसौ चार लड़ियाँ हों उसे विजयछन्द हार कहते हैं । यह हार अर्धचक्रवर्ती तथा बलभद्र आदि अन्य पुरुषोंके पहनने योग्य कहा गया है ॥५७॥ जिसमें एक सौ आठ लड़ियाँ हो उसे हार कहते हैं और जिसमें मोतियोंकी इक्यासी लड़ियाँ हों उसे देवच्छन्द कहते हैं ||५८ || जिसमें चौंसठ लड़ियाँ हों उसे अर्धहार, जिसमें चौवन लड़ियाँ हों उसे रश्मिकलाप और जिसमें बत्तीस लड़ियाँ हों उसे गुच्छ कहते हैं ||५९ || जिसमें सत्ताईस लड़ियाँ हों उसे नक्षत्रमाला कहते हैं । यह हार अपने मोतियोंसे अश्विनी भरणी आदि नक्षत्रोंकी मालाकी शोभाकी हँसी करता हुआ-सा जान पड़ता है ॥६०॥ मोतियोंकी चौबीस लड़ियोंके हारको अर्धगुच्छ, बीस लड़ियोंके हारको माणव और दश लड़ियोंके हारको अर्धमाणव कहते हैं ।। ६१|| ऊपर कहे हुए इन्द्रच्छन्द आदि हारोंके मध्य में जब माणि लगा दिया जाता है तब उन नामोंके साथ माणव शब्द और भी सुशोभित होने लगता है अर्थात् इन्द्रच्छन्दमाणव, विजयछन्दमाणव आदि कहलाने लगते हैं ||६२|| जो एक शीर्षक हार है वह
१. सममौक्तिकः प० । २. उक्तपञ्चप्रकारेण भेदाः । ३. मणियुक्तानामेकावलीरत्नावली - अपवर्तकानामपि शीर्षकादिपञ्चभेदा योज्याः । ४. समूहः । ५. अष्टोत्तरसहस्रमिति । ६ - स्योक्त्या ब० । ७. माणवाख्यपदोपपदाः ।