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पदर्श पर्व
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सरस्वती प्रियास्यासीत् कीर्त्तिश्राकल्लवर्त्तिनी । लक्ष्मीं तडिल्लतालोलां मन्दप्रेम्णैव सोऽवहत् ॥४८॥ तदीयरूपलावण्ययौवनादिगुणोगमैः । आकृष्टा जनतानेभृङ्गा नान्यत्र रेमिरे ॥४९॥ नामिराजोऽन्यदा दृष्ट्वा यौवनारम्भमीशितुः । परिणाय यितुं देवमिति चिन्तां मनस्यधात् ॥५०॥ देवोऽयमतिकान्ताङ्गः कास्य स्याच्चित्तहारिणी । सुन्दरी मन्दरागेऽस्मिन् प्रारम्भो दुर्घटो ह्ययम् ॥५१॥ अपि चास्य महानस्ति प्रारम्भस्तीर्थ वर्त्तने । सोऽतिवत्तव गन्धेभो नियमात्प्रविशेद्र्वनम् ॥५२॥ तथापि काललब्धिः स्याद् यावदस्य तपस्थितुम्' । तावस्कलत्रमुचितं चिन्त्यं 'लोकानुरोधतः ॥५३॥ ततः पुण्यवती काचिदुचितामिजना वधूः । कलहंसीव निष्पक्कमस्यावसतु मानसम् ॥५४॥ इति निश्चित्य लक्ष्मीवान्नामिराजोऽतिसंभ्रमी । "ससाम्यमुपसृत्येदमवोचद्वदतां वरम् ॥ ५५ ॥ देव किंचिद् विवनामि'' सावधाने मितः शृणु । स्वयोपकारो लोकस्य करणीयो जगत्पते ॥५६॥ हिरण्यर्भस्त्वं धाता जगतां त्वं स्वभूरसि " । "निभमात्रं स्वदुत्पत्तौ पितृम्मन्या" यतो वयम् ॥५७॥
भगवान् स्वभावसे ही वीतराग थे, राज्यलक्ष्मीको प्राप्त करना अच्छा नहीं समझते थे ||४७ || भगवान्को दो स्त्रियाँ ही अत्यन्त प्रिय थीं- एक तो सरस्वती और दूसरी कल्पान्तकाल तक स्थिर रहनेवाली कीर्ति | लक्ष्मी विद्युत्लताके समान चंचल होती है इसलिए भगवान् उसपर बहुत थोड़ा प्रेम रखते थे ||४८|| भगवान् के रूप-लावण्य, यौवन आदि गुणरूपी पुष्पोंसे आकृष्ट हुए मनुष्योंके नेत्ररूपी भौंरे दूसरी जगह कहीं भी रमण नहीं करते थे-आनन्द नहीं पाते थे ||४९ || किसी एक दिन महाराज नाभिराज भगवान्की यौवन अवस्थाका प्रारम्भ देखकर अपने मनमें उनके विवाह करनेकी चिन्ता इस प्रकार करने लगे ||१०|| कि यह देव अतिशय सुन्दर शरीर के धारक हैं, इनके चित्तको हरण करनेवाली कौन-सी सुन्दर स्त्री हो सकती है ? कदाचित् इनका चित हरण करनेवाली सुन्दर स्त्री मिल भी सकती है, परन्तु इनका विषयराग अत्यन्त मन्द है इसलिए इनके विवाहका प्रारम्भ करना ही कठिन कार्य है || ५१|| और दूसरी बात यह है कि इनका धर्म की प्रवृत्ति करनेमें भारी उद्योग है इसलिए ये नियमसे सव परिग्रह छोड़कर मत्त हस्तीकी नाईं वनमें प्रवेश करेंगे अर्थात् वनमें जाकर दीक्षा धारण करेंगे ||१२|| तथापि तपस्या करनेके लिए जबतक इनकी काळलब्धि आती है तबतक इनके लिए लोकव्यवहार के अनुरोधसे योग्य स्त्रीका विचार करना चाहिए || ५३ || इसलिए जिस प्रकार हंसी निष्पंक अर्थात् कीचड़रहित मानस (मानसरोवर) में निवास करती है उसी प्रकार कोई योग्य और कुलीन स्त्री इनके froin अर्थात् निर्मल मानस ( मन ) में निवास करे || ५४ ॥ | यह निश्चय कर लक्ष्मीमान् महाराज नाभिराज बड़े ही आदर और हर्षके साथ भगवान् के पास जाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान से शान्तिपूर्वक इस प्रकार कहने लगे कि ||१५|| हे देव, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ इसलिए आप सावधान होकर सुनिए। आप जगत् के अधिपति हैं इसलिए आपको जगत्का उपकार करना चाहिए ||५६|| हे देव, आप जगत्की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा हैं तथा स्वभू हैं अर्थात् अपने आप ही उत्पन्न हुए हैं। क्योंकि आपकी उत्पत्ति में अपने-आपको पिता माननेवाले हम
१. पुष्पैः । २. जगतां नेत्र - १०, ६० । ३. विवाहयितुम् । ४. विवाहोपक्रमः । ५. अतिक्रमणशीलः । विशृंखलतया वर्तमान इत्यर्थः । ६. तपोवनम् । ७. तपस्यन्तुं प०, ल० । तपः सिन्तुं स० अ० । तपस्कर्तुम् । ८. जनानुवर्तनात् । ९. योग्यकुलाः । १०. सामसहितम् । 'सामसान्स्वमधो समौ' इत्यभिधानात् । अथवा सान्त्वम् अतिमधुरम् ‘अत्यर्थमधुरं सान्वं संगतं हृदयंगमम्' इत्यभिधानात् । १२. स्वयंभूः । १३. व्याजमात्रम् । १४. पितमन्या अ०, प०, म०, ल० ॥
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११. वक्तुमिच्छामि ।
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