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पञ्चदशं पर्व नीलोत्पलवतंसेन तस्कणों दधतुः श्रियम् । मिथः प्रमिस्सुने वोच्चरायति नयनाब्जयोः ॥८॥ ते ललाटतटालम्बानलकान हतुर्भृशम् । सुवर्णपट्टपर्यन्तखचितेन्द्रोपकत्विषः ॥८९॥ 'सस्तस्रक्कवरीबन्धस्तयोरुत्प्रेक्षितो जनैः । कृष्णाहिरिव शुक्लाहिं निगीर्य पुनरुदिरन् ॥१०॥ इति स्वभावमधुरामाकृति भूषणोज्ज्वलाम् । दधाने दधतुर्लीला कल्पवल्ल्योः स्फुरस्विषोः ॥११॥ रष्ट्वेनयोरदो रूपं जनानामतिरित्यभूत् । एताभ्यां निर्जिताः सत्यं त्रियम्मन्याः सुरस्त्रियः । ९२॥ स ताभ्यां कीर्तिलक्ष्मीभ्यामिव रंजे 'वरोत्तमः । ते च तेन महानयी वादिनेव समीयतुः ॥१३॥ सरूपं सद्युती कान्ते ते मनो जहतुर्विभोः । मनोभुव इवाशेषं जिगीषोवैजयन्तिकं ॥९॥ तयोरपि मनस्तेन रञ्जितं भुवनेशिना । हारयष्योरिवार मणिना मध्यमुद्रुचा ॥१५॥ बहुशो मग्नमानोऽपि "यत्पुरोऽस्य मनोभवः । चचार" गूढसंचार" कारणं तत्र चिन्त्यताम् ॥१६॥ नूनमनं प्रकाशारमा ग्यधुं हृदिशयोऽक्षमः । अनङ्गता तदा भेजे सोपाया हि जिगीषवः ॥१७॥
नहीं कर सकती थीं ॥ ८७ ॥ उन महादेवियोंके कान नीलकमलरूपी कर्ण-भूषणोंसे ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो नेत्ररूपी कमलोंकी अतिशय लम्बाईको परस्परमें नापना ही चाहते थे ।।८८।। वे देवियाँ अपने ललाट-तटपर लटकते हुए जिन अलकोंको धारण कर रही थीं वे सुवर्णपट्टकके किनारेपर जड़े हुए इन्द्रनीलमणियोंके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ।। ८९ ।। जिनपर-की पुष्पमालाएँ ढीली होकर नीचेकी ओर लटक रही थीं ऐसे उन देवियोंके केशपाशोंके विषयमें लोग ऐसी उत्प्रेक्षा करते थे कि मानो कोई काले साँप सफेद साँपको निगलकर फिरसे उगल रहे हों । इस प्रकार स्वभावसे मधुर और आभूपणोंसे उज्ज्वल आकृतिको धारण करनेवाली वे देवियाँ कान्तिमती कल्पलताओंकी शोभा धारण कर रही थीं ।।११।। इन दोनोंके उस सुन्दर रूपको देखकर लोगोंकी यही बुद्धि होती थी कि वास्तवमें इन्होंने अपनेआपको स्त्री माननेवाली देवाङ्गनाओंको जीत लिया है ।।१२।। वरोंमें उत्तम भगवान् वृषभदेव उन देवियोंसे एसे शोभायमान हो रहे थे मानो कीर्ति और लक्ष्मीसे ही शोभायमान हो रहे हों और वे दोनों भगवानसे इस प्रकार मिली थी जिस प्रकारकी महानदियाँ समुद्रसे मिलती हैं।९वे देवियाँ बड़ी ही रूपवती थीं, कान्तिमती थीं, सुन्दर थीं और समस्त जगत्को जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवकी पताकाके समान थीं और इसीलिए ही उन्होंने भगवान् वृषभदेवका मन हरण कर लिया था।।१४।। जिस प्रकार बीच में लगा हुआ कान्तिमान पद्मरागमणि हारयष्टियोंके मध्यभागको अनुरंजित अर्थात् लाल वर्ण कर देता है उसी प्रकार उत्कृष्ट कान्ति या इच्छासे युक्त भगवान् वृषभदेवने भी उन देवियोंके मनको अनुरंजित-प्रसन्न कर दिया था ॥९५।। यद्यपि कामदेव भगवान् वृषभदेवके सामने अनेक बार अपमानित हो चुका था तथापि वह गुप्त रूपसे अपना संचार करता ही रहता था। विद्वानोंको इसका कारण स्वयं विचार लेना चाहिए ॥९क्षा मालूम होता है कि कामदेव स्पष्टरूपसे भगवानको बाधा देनेके लिए समर्थ नहीं था इसलिए वह उस समय शरीररहित अवस्थाको प्राप्त हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि विजयकी इच्छा करनेवाले पुरुष अनेक उपायों सहित होते हैं-कोई-न-कोई
१. नीलोत्पलावतंसेन ५०, ल० । २. प्रमातुमिच्छुना। ३. दधतुः । ४. गलितः । ५. उद्गिलन् म०,५०, द०, स०। ६. नरोत्तमः अ०, स०। ७. संगमीयतुः । ८. समानरूपे । ९. पपरागमाणिक्येन । १०. यस्मात् कारणात् । ११. चरति स्म । एतेन प्रभोर्माहात्म्यं व्यज्यते । तत्र तयोः सौभाग्यं व्यङ्ग्यम् । १२. -सञ्चारकारणं- अ०, प० । १३. व्यक्तस्वरूपः । १४. जेतुमिच्छवः ।