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आदिपुराणम् अनङ्गत्वेन तन्नूनमेनयोः प्रविशन् वपुः । दुर्गाश्रित इवानको विव्याधैनं स्वसायकैः ॥९॥ ताभ्यामिति समं भोगान् भुझानस्य जगद्गुरोः । कालो महानगादेकक्षणवद् सततक्षण:२ ॥१९॥ अथान्यदा महादेवी सौधे सुप्ता यशस्वति । स्वप्नेऽपश्यन् महीं प्रस्तां मेरुं सूर्य च सोडुपम् ।।१००॥ सरः सहसमब्धि चचलद्वीचिकमैक्षत । स्वप्नान्ते च व्यबुद्धासौ पठन् मागधनिःस्वनैः ॥१०॥ त्वं विबुध्यस्व कल्याणि कल्याणशतमागिनि । प्रबोधसमयोऽयं ते सहाजिन्या धृतश्रियः ॥१०॥ मुदे तवाम्ब भूयासुरिमे स्वप्नाः शुभावहाः । महीमेरूदधीन्दुसरोबरपुरस्सराः ॥१०३॥ नमस्सरोवरेऽविष्य चिरं तिमिरशैवलम् । खेदादिवानाम्येति शशिहंसोऽस्त पादपम् ॥ ज्योत्स्नाम्मसि चिरं ती ताराहस्यो नमो दे। नूनं निलेतुमस्ताः शिखराण्याश्रयन्त्यमूः॥१०५॥ निद्राकषायितैनः कोकीनांसेग्रमीक्षितः । तदृष्टिषितारमेव विधुधिरछायतां गतः ॥१६॥ प्रयाति यामिनी यामा निवान्वेतुं पुरोगतान् । ज्योत्स्नांशुकंन संवेष्ट्य तारासर्वस्वमाग्मनः ॥१०॥ इतोऽस्तमति शीतांशुरितो भास्वानुदीयते । संसारस्येव वैचित्र्यमुपदंष्टुसमुद्यतौ ॥१०॥
उपाय अवश्य करते हैं ।।९७।। अथवा कामदेव शरीररहित होनेके कारण इन देवियोंके शरीर में प्रविष्ट हो गया था और वहाँ किले के समान स्थित होकर अपने बाणोंके द्वारा भगवानको घायल करता था ॥९८ । इस प्रकार उन देवियोंके साथ भोगोंको भोगते हुए जगद्गुरु भगवान वृषभदेवका बड़ा भारी समय निरन्तर होनेवाले उत्सवोंसे श्रण-भरके समान बीत गया.था ।। ९९ ॥
___ अथानन्तर किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहलमें सो रही थीं। सोते समय उसने स्वप्नमें प्रसी हुई पृथिवी, सुमेरु पर्वत, चन्द्रमासहित सूर्य, हंससहित सरोवर तथा चखल लहरोंवाला समुद्र देखा, स्वप्न देखने के बाद मंगल-पाठ पढ़ते हुए बन्दीजनोंके शब्द सुनकर वह जाग पड़ी ॥१००-१०१।। उस समय बन्दीजन इस प्रकार मंगल-पाठ पढ़ रहे थे कि हे दूसरोंका कल्याण करनेवाली और स्वयं सैकड़ों कल्याणोंको प्राप्त होनेवाली देवि, अब तू जाग; क्योंकि तू कमलिनीके समान शोभा धारण करनेवाली है-इसलिए. यह तेरा जागनेका समय है। भावार्थ-जिस प्रकार यह समय कमलिनीके जागृत-विकसित होनेका है, उसी प्रकार तुम्हारे जाग्रत होनेका भी है ॥१०॥ हे मातः. प्रथिवी, मेरु, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा और सरोवर आदि जो अनेक मंगल करनेवाले शुभ स्वप्न देखे हैं वे तुम्हारे आनन्दके लिए हो ॥ १०३ ।। हे देवि, यह चन्द्रमारूपी हंस चिरकाल तक आकाशरूपी सरोवर में अन्धकाररूपी शैवालको खोजकर अब खेदखिन्न होनेसे ही मानो अस्ताचलरूपी वृक्षका आश्रय ले रहा है अर्थात् अस्त हो रहा है ॥ १०४ ॥ ये तारारूपी हंसियाँ आकाशरूपी सरोवरमें चिरकाल तक तैरकर अब मानो निवास करने के लिए ही अस्ताचलके शिखरोंका आश्रय ले रही हैं-अस्त हो रही हैं॥१०५।। हे देवि, यह चन्द्रमा कान्तिरहित हो गया है, ऐसा मालूम होता है कि रात्रिके समय चकवियोंने निद्राके कारण लाल वर्ण हुए नेत्रोंसे इसे ईर्ष्याके साथ देखा है इसलिए मानो उनकी दृष्टिके दोषसे ही दूषित होकर यह कान्तिरहित हो गया है ।। १०६ ।। हे देवि, अब यह रात्रि भी अपने नक्षत्ररूपी धनको चाँदनीरूपी वस्त्रमें लपेटकर भागी जा रही है, ऐसा मालूम होता है मानो वह आगे गये हुए (बीते हुए ) प्रहरोंके पीछे ही जाना चाहती हो ॥ १०७ ॥ इस ओर यह चन्द्रमा अस्त हो रहा है और इस ओर सूर्यका उदय होरहा है, ऐसा जान पड़ता है मानो
१. वा नून- अ०, ५०, स०, द०, म०, ल० । २. नित्योत्सवैः । ३. चलवीचिक- अ०, ५०, द०, म०, स०, ल०,। ४. -पुरोगमाः प० । ५. रेऽवीष्य ट० । अनुप्राप्य । ६. अभिमच्छति । ७. अस्तगिरिवृक्षम् । ८. तरणं कृत्वा । ९. वस्तुम् । १०. ईय॑या गहितम् । ११. रजनी । १२. प्रहरान् । १३. 'ई गती' उदयतीत्यर्थः ।