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आदिपुराणम् यथास्य रूपसंपत्तिस्तथा भोगैश्च पप्रथे। न हि कल्पाअघ्रिपोद्भतिरनाभरणभासुरा ॥३४॥ लक्षणानि बभुत्तु दहमाश्रित्य निर्मलम् । ज्योतिषामिव बिम्बानि मेरोमणिमयं तटम् ॥३५॥ विभुः कल्पतरुच्छायां बभारामरणोज्ज्वलः । शुमानि लक्षणान्यस्मिन् कुसमानीव रेजिरे ॥३६॥ तानि श्रीवृक्षशलाजस्वस्तिकाङ्कशतोरणम् । प्रकीर्णकसितच्छसिंह विष्टरकेतनम् । ॥३७॥ प्रषो कुम्भौ च कर्मश्च चक्रमब्धिः सरोवरम् । विमानभवने नागों नरनार्यो मृगाधिपः ॥३८॥ वाणवाणासने मेरुः सुरराट् सुरनिम्नगा । पुरं गोपुरमिन्द्वौं जास्यश्वस्तालवृन्तकम् ॥३९॥ .. वेणुर्वीणा मृदङ्गश्च सजी पट्टांशुकापणौ । स्फुरन्ति कुण्डलादानि विचित्रामरणानि च ॥४०॥ उद्यानं फलितं क्षेत्रं मुपककलमाञ्चितम् । रवद्वीपश्च वज्रं च मही लक्ष्मीः सरस्वती ॥४१॥ सुरभिः सौरभेयश्च चूहारत्नं महानिधिः । कल्पवल्ली हिरण्यं च जम्बूवृक्ष 'पक्षिराट् ॥४२॥ "उडूनि तारकाः सौधं ग्रहाः सिद्धार्थपादपः । प्रातिहार्याण्यहार्याणि 'मङ्गलान्यपराणि च ॥१३॥ लक्षणान्येवमादीनि विभोरप्टोत्तरं शतम् । व्यञ्जनान्यपराण्यासन् शतानि नवसंख्यया ॥४४॥ अभिरामं वपुर्तलक्षणेरभिरूजितैः । ज्योतिभिरिव संछन्न गगनप्राङ्गणं बभौ ॥४५॥ लक्ष्मणां च ध्रुवं किंचिदस्यन्तर्लक्षणं शुभम् । 'येन तैः श्रीपतेरङ्गं स्प्रष्टुं लब्धमकल्मषम् ॥४६॥ लक्ष्मीनिकामकठिने विरागस्य जगद्गुरोः । कथं कथमपि प्रापदवकाशं मनोगृहे ॥४७॥
भगवान वृषभदेवकी जैसी रूप-सम्पत्ति प्रसिद्ध थी वैसी ही उनकी भोगोपभोगकी सामग्री भी प्रसिद्ध थी, सो ठीक ही है क्योंकि कल्पवृक्षांकी उत्पत्ति आभरणोंसे देदीप्यमान हुए बिना नहीं रहती ।। ३४ ॥ जिस प्रकार सुमेरु पर्वतके मणिमय तटको पाकर ज्योतिषी देवोंके मण्डल अतिशय शोभायमान होने लगते हैं उसी प्रकार भगवान के निर्मल शरीरको पाकर सामदिक शास्त्र में कहे हुए लक्षण अतिशय शोभायमान होने लगे थे ।। ३५ ॥ अथवा अनेक आभूषणोंसे उज्ज्वल भगवान् कल्पवृक्षकी शोभा धारण कर रहे थे और अनेक शुभ लक्षण उसपर लगे हुए फूलोंके समान सुशोभित हो रहे थे । ३६ ॥ श्रीवृक्ष, शक, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, दो मीन, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृन्त-पंखा, बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दूकान, कुण्डलको आदि लेकर चमकते हुए चित्र-विचित्र आभूषण, फलसहित उपवन, पके हुए वृक्षोंसे सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वन, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादिक ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य, और आठ मंगलद्रव्य, इन्हें आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यञ्जन भगवान के शरीरमें विद्यमान थे ॥३७-४४॥ इन मनोहर और श्रेष्ठ लक्षणोंसे व्याप्त हुआ भगवानका शरीर ज्योतिषी देवोंसे भरे हुए आकाशरूपी आँगनकी तरह शोभायमान हो रहा था ॥४५।। चूँकि उन लक्षणोंको भगवान् का निर्मल शरीर स्पर्श करनेके लिए प्राप्त हुआ था इसलिए जान पड़ता है कि उन लक्षणोंके अन्तर्लक्षण कुछ शुभ अवश्य थे॥४६ ॥ रागद्वेषरहित जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवके अतिशय कठिन मनरूपी घरमें लक्ष्मी जिस प्रकार-बड़ी कठिनाईसे अवकाश पा सकी थी। भावार्थ
१.-तोरणाः द०, स०, । २. प्रकीर्णकं चामरम् । ३. सुरविमाननागालयौ। ४. गजः । ५. वंशः । ६. आपणः पण्यवीथी । ७. फलिनं द०, ल०। ८. कामधेनुः । ९. वृषभः । १०. जम्बूद्वीपः । ११. गरुडः । १२. नक्षत्राणि । १३. प्रकीर्णकतारकाः । १४.-दिपाः म० । १५. स्वाभाविकानि । १६.-पराण्यपि ८०, स०।१७. अन्तलक्षणेन । १८. लक्षणः ।