________________
आदिपुराणम्
aiser नासिकोसुङ्गा श्रियमायति शालिनीम् । सरस्वत्यवताराय कल्पितेव प्रणालिका ॥१३॥ धत्ते स्म रुचिरा रेखाः कम्धरोऽस्यास्यसमनः "। "उल्लिख्य घटितो मात्रा रौक्मस्तम्भ इबैककः ॥ १४॥ महानायकसंसक्त हारयष्टिमसौ दधे । वक्षसा गुणराजन्य' पृतनामिव संहताम् ॥ १५ ॥ ។ इन्द्रच्छन्दं महाहारमधत्तासौ स्फुरद्युतिः । वक्षसा सानुनादीन्द्रो यथा "निर्झरसंकरम् ॥ १६ ॥ हारेण हारिणा तेन तद्वक्षो रुचिमानशे । गङ्गाप्रवाहसं सतहिमाद्रितटसंभवाम् ॥१७॥ वक्षस्सरसि रम्येऽस्य हाररोचिश्छटाम्भसा । संभृते सुचिरं रेमे दिग्यश्रीकल हंसिका ॥ १८ ॥ वक्षःश्रीगेहपर्यन्ते तस्यांसौ श्रियमापतुः । जयलक्ष्मीकृतावासौ तुङ्गौ भट्टालकाविव ॥ १९ ॥ बाहू केयूरसंघ मसृणां सौ दधे विभुः । कल्पाधि ग्रविवाभीष्टफलदौ श्रीलताश्रितौ ॥ २० ॥ नखानूहे" सुखालोकान्" ""सकराङ्गुलिसंश्रितान् । " दशावतारसंभुक्तलक्ष्मीविभ्रमदर्पणान् ॥ २१॥ ``मध्ये कायमसौ नामिमदधनाभिनन्दनः । सरसीमिव सावतां लक्ष्मीहंसीनिषेविताम् ॥२२॥ "समेखलमधात् कान्ति जघनं तस्य सांशुकम् । नितम्बमिव भूमर्तुः सतडिच्छरदम्बुदम् ॥२३॥
Co
३२६
लाल-लाल अधरसे सहित था इसलिए फेनसहित पाँखुरीसे युक्त कमलकी शोभा धारण कर रहा था || १२ || भगवान्की लम्बी और ऊँची नाक सरस्वती देवीके अवतरण के लिए बनायी गयी प्रणालीके समान शोभायमान हो रही थी || १३|| उनका कण्ठ मनोहर रेखाएँ धारण कर रहा था। वह उनसे ऐसा मालूम होता था मानो विधाताने मुखरूपी घरके लिए उकेर कर एक सुवर्णका स्तम्भ ही बनाया हो ||१४|| वे भगवान् अपने वक्षःस्थलपर महानायक अर्थात् बीचमें लगे हुए श्रेष्ठ मणिसे युक्त जिस हारयष्टिको धारण कर रहे थे वह महानायक अर्थात् श्रेष्ठ सेनापति से युक्त, गुणरूपी क्षत्रियोंकी सुसंगठित सेनाके समान शोभायमान हो रही थी ।। १५ ।। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत अपने शिखरपर पड़ते हुए झरने धारण करता है उसी प्रकार भगवान् वृषभदेव अपने वक्षःस्थलपर अतिशय देदीप्यमान इन्द्रच्छद नामक हारको धारण कर रहे थे ।। १६ ।। उस मनोहर हारसे भगवान्का वक्षःस्थल गंगा नदींके प्रवाहसे युक्त हिमालय पर्वत के तट के समान शोभाको प्राप्त हो रहा था ।। १७ ।। भगवान्का वक्षःस्थल सरोवर के समान सुन्दर था । वह हारकी किरणरूपी जलसे भरा हुआ था और उसपर दिव्य लक्ष्मीरूपी कलहंसी चिरकाल तक क्रीड़ा करती थी ॥ १८ ॥ भगवान्का वक्षःस्थल लक्ष्मीके रहनेका घर था, उसके दोनों ओर ऊँचे उठे हुए उनके दोनों कन्धे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो जयलक्ष्मी रहनेकी दो ऊँची अटारो ही हों ॥ १९ ॥ बाजूबन्दके संघट्टनसे जिनके कन्धे स्निग्ध हो रहे हैं और जो शोभारूपी लतासे सहित हैं ऐसी जिन भुजाओंको भगवान् धारण कर रहे थे वे अभीष्टफल देनेवाले कल्पवृक्षोंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥२०॥ सुख देनेवाले प्रकाश से युक्त तथा सीधी अँगुलियोंके आश्रित भगवान्के हाथोंके नखोंको मैं समझता हूँ कि वे उनके महाबल आदि दस अवतारोंमें भोगी हुई लक्ष्मीके विलास-दर्पण ही थे ||२१|| महाराज नाभिराज के पुत्र भगवान् वृषभदेव अपने शरीर के मध्यभागमें जिस नाभिको धारण किये हुए थे वह लक्ष्मीरूपी हंसीसे सेवित तथा आवर्तसे सहित सरसीके समान सुशोभित हो रही थी ||२२|| करधनी और वस्त्रसे सहित भगवान्का जघनभाग ऐसी शोभा धारण
१. - मायाति - अ०, स० । २. श्रुतदेव्यवतरणाय । ३. प्रवेशद्वारम् । ४. ग्रीवा । ५: वक्त्रमन्दिरः । ६. उत्कीर्त्य संघटितः । ७. सुवर्णमय । ८. महामध्यमणियुताम् । ९. गुणवद्राजपुत्रसेनाम् । गुणराजस्य ट० । १०. संयुक्ताम् । ११. एतन्नामकं हारविशेषम् । १२. निर्झर प्रवाहम् । १३. भुजशिखरी । १४. केयूरसम्मर्दन - कृतनयभुजशिखरी । १५. धृतवान् । १६. सुखप्रकाशान् । १७. सरलाङगुलि - अ०, स० म० । १८. महाबलादिदशावतारेष्वनुभुक्तलक्ष्मीविलासमुकुरान् । १९. शरीरस्य मध्ये । २०. काञ्चीदामसहितम् । २१. पर्वतस्य ।