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आदिपुराणम् यथार्कस्य समुद्भुतौ निमित्तमुदयाचलः । स्वतस्तु मास्वानुवाति तथैवास्म' भवानपि ॥५४॥ गर्भगेहे शुचौ मातुस्स्वं दिव्ये पनविष्टरे । निधाय स्वां परां शक्तिमुद्भूतो निष्कलोऽस्यतः ॥५९॥ गुरुबुवोऽहं तदेव स्वामित्यभ्यर्थय विभुम् । मर्ति विधेहि लोकस्य सर्जनं प्रति संप्रति ॥३०॥ स्वामादिपुरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्तताम् । महतां मार्गवत्तिन्यः प्रजाः सुप्रजसो ह्यमूः ॥६॥ ततः कलत्रमश्रेष्टं परिणेतुं मनः कुरु । प्रजासन्ततिरवं हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥६॥ प्रजासत्तस्यविच्छेदे तनुते धर्मसन्ततिः। मनुष्व मानवं"धर्म ततो देवेममच्युत ॥६३॥... देवेमं गृहिणां धर्म विद्धि दारपरिग्रहम् । सन्तानरक्षणे यस्न: कार्यों हि गृहमेधिनाम् ॥६॥ स्वया गुरुमतोऽयं चेत् जनः केनापि हेतुना । वचो नोल्सयमेवास्य नेष्टं हि गुरुलानम् ॥६५॥ इत्युदीर्य गिरं धीरो'"व्यरंसीबामिपार्थिवः । देवस्तु सस्मितं तस्य वचः प्रत्येच्छदोमिति ॥६६॥ किमेतपितृदाक्षिण्यं किं प्रजानुग्रहैषिता । "नियोगः कोऽपि वा ताग येनैच्छत्तारशं वशी ॥६॥ ततोऽस्यानुमतिं ज्ञात्वा विशको नामिभूपतिः । महद्विवाहकल्याणमकरोत्परया मुदा ॥६॥
सुरेन्द्रानुमतात् कन्ये सुशीले चारुलक्षणे । “सत्यौ सुरुचिराकारे "वरयामास नाभिराट् ॥६९॥ लोग छल मात्र हैं ।।५७॥ जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेमें उदयाचल निमित्त मात्र है क्योंकि सूर्य स्वयं ही उदित होता है उसी प्रकार आपकी उत्पत्ति होनेमें हम निमित्त मात्र हैं क्योंकि आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं ॥५८|आप माताके पवित्र गर्भगृहमें कमलरूपी दिव्य आसनपर अपनी उत्कृष्ट शक्ति स्थापन कर उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप वास्तवमें शरीररहित हैं ॥५९॥ हे देव, यद्यपि मैं आपका यथार्थमें पिता नहीं हूँ, निमित्त मात्रसे ही पिता कहलाता हूँ तथापि मैं आपसे एक अभ्यर्थना करता हूँ कि आप इस समय संसारकी सृष्टिकी ओर भी अपनी बुद्धि लगाइए।।६०॥ आप आदिपुरुष हैं इसलिए आपको देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे क्योंकि जिनके उत्तम सन्तान होनेवाली है ऐसी. यह प्रजा महापुरुषोंके ही मार्गका अनुगमन करती है ॥६१।। इसलिए. हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, आप इस संसारमें किसी इष्ट कन्याके साथ विवाह करनेके लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करनेसे प्रजाकी सन्ततिका उच्छेद नहीं होगा ॥२॥ प्रजाकी सन्ततिका उच्छेद नहीं होनेपर धर्मकी सन्तति बढ़ती रहेगी इसलिए हे देव, मनुष्योंके इस अविनाशीक विवाहरूपी धर्मको अवश्य ही स्वीकार कीजिए ॥३॥ हे देव, आप इस विवाह कार्यको गृहस्थोंका एक धर्म समझिए क्योंकि गृहस्थोंको सन्तानकी रक्षामें प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए ॥६४॥ यदि आप मुझे किसी भी तरह गुरु मानते हैं तो आपको मेरे वचनोंका किसी भी कारणसे उल्लंघन नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरुओंके वचनोंका उल्लंघन करना इष्ट नहीं है ।।६५।। इस प्रकार वचन कहकर धीर-वीर महाराज नाभिराज चुप हो रहे
और भगवान्ने हँसते हुए 'ओम्' कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिये अर्थात् विवाह कराना स्वीकृत कर लिया ॥६६॥ इन्द्रियोंको वशमें करनेवाले भगवान्ने जो विवाह करानेकी स्वीकृति दी थी वह क्या उनके पिताकी चतुराई थी, अथवा प्रजाका उपकार करनेकी इच्छा थी अथवा वैसा कोई कोका नियोग ही था ॥६॥ तदनन्तर भगवान्की अनुमति जानकर नाभिराजने निःशंक होकर बड़े हर्षके साथ विवाहका बड़ा भारी उत्सव किया ॥६८॥ महाराज नाभिराजने इन्द्रकी अनुमतिसे सुशील, सुन्दर लक्षणोंवाली, सती और मनोहर आकारवाली दो कन्याओंकी
१. अस्मत्तः। २. भवत्संबन्धिनीम् । ३. निःशरीरः, शरीररहित इत्यर्थः । ४. कारणात् । ५.प्रार्थये । ६. सष्टिः । ७. सूपत्रवत्यः । ८. एवं सति । ९. विच्छिन्ना न भविष्यति । १०. जा ११. मनुसंबन्धिनम् । १२. देवनमच्युतम् अ०,५०, द०, स० । देवेनमच्युतम् ल.। १३. गहमेधिना ८०। १४. पितेति मतः । १५. अहमित्यर्थः । १६. तूष्णीं स्थितः । १७. तथास्तु । ओमेवं परमं मते । १८. नियमेन कर्तव्यः । १९. मत्वा प०, ८०, म., ल०, २०. पतिव्रते । २१. यया ।