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पञ्चदशं पर्व
पथास्य यौवने पूणे वपुरासीन्मनोहरम् । प्रकृत्यैव शशी कान्तः किं पुनः शरदागमे ॥१॥ निष्टप्लकनकच्छायं निःस्वेदं नीरजोऽमलम् । क्षीराच्छक्षत दिव्यसंस्थानं वज्रसंहतम् ॥२॥ सौरूप्यस्य परां कोटिं दधानं सौरमस्य च । अष्टोत्तरसहस्रण लक्षणानामलंकृतम् ॥३॥ अप्रमेयमहावीर्य दधत् प्रियहितं वचः । कान्तमाविरमदस्य रूपमप्राकृतं प्रभोः ॥४॥ मकुटालंकृतं तस्य शिरो नीलशिरोरुहम् । सुरेन्द्रमणिभिः कान्तं मेराः शृङ्गमिवावी ॥५॥ रुरुचे मनि मालास्य कल्यानोकहसंमवा । हिमाद्रेः कूटमावेष्व्यापतन्तीवामरापगा ॥६॥ ललाटपट्टे विस्तीर्ण रुचिरस्य महत्यभूत् । वाग्देवीललिता क्रीङ स्थललीलां वितन्वती ॥७॥ भूलते रेजतुर्भलिंलाटाद्रितटाश्रिते । वागुरे मदनैणस्य संरोधायैव कल्पिते ॥८॥ नयनोस्पलयोरस्य कान्तिरानीलतारयोः'। आसीद् द्विरेफसंसकमहोत्पलदलश्रियोः ॥९॥ मणिकुण्डलभूषाभ्यां कर्णावस्य रराजतुः । पर्यन्तौ गगनस्येव चन्द्रार्काभ्यामलंकृतो ॥११॥ मुखेन्दो या द्युतिस्तस्य न सान्यत्र त्रिविष्टपे । अमृत या तिः सा किं कचिदन्यत्र लक्ष्यते ॥११॥ स्मितांशुरुचिरं तस्य मुखमापाटलाधरम् । लसदलस्य पद्मस्य सफेनस्य श्रियं दधौ ॥१२॥
अनन्तर पूर्ण यौवन अवस्था होनेपर भगवानका शरीर बहुत ही मनोहर हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमा स्वभावसे ही मुन्दर होता है यदि शरद्ऋतुका आगमन हो जाये तो फिर कहना ही क्या है ? ॥१॥ उनका रूप बहुत ही सुन्दर और असाधारण हो गया था, वह तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिवाला था, पसीनासे रहित था, धूलि और मलसे रहित था, दूधके समान सफेद मधिर, समचतुरस्र नामक सुन्दर संस्थान और वनवृषभनाराचसंहननसे सहित था, सुन्दरता और सुगन्धिकी परम सीमा धारण कर रहा था, एक हजार आठ लक्षणोंसे अलंकृत था, अप्रमेय था, महाशक्तिशाली था, और प्रिय तथा हितकारी वचन धारण करता था ॥२-४।। काले-काले केशोंसे युक्त तथा मुकुटसे अलंकृत उनका शिर ऐसा सुशोभित होता था मानो नीलमणियोंसे मनोहर मेरु पर्वतका शिखर ही हो ।।५।। उनके मस्तकपर पड़ी हुई कल्पवृक्षके पुष्पोंकी माला ऐसी अच्छी मालूम होती थी मानो हिमगिरिके शिखरोंको घेरकर ऊपरसे पड़ी हुई आकाशगंगा ही हो ।।६।। उनके चौड़े ललालपट्टपर-की भारी शोभा ऐसी मालूम होती थी मानो सरस्वती देवीके सुन्दर उपवन अथवा क्रीड़ा करने के स्थलकी शोभा ही बढ़ा रही हो ।।जा ललाटरूपी पर्वतके तटपर आश्रय लेनेवाली भगवानकी दोनों भौंहरूपी लताएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो कामदेवरूपी मृगको रोकने के लिए दो पाश ही बनाये हों ।।८। काली पुतलियोंसे सुशोभित भगवानके नेत्ररूपी कमलोंकी कान्ति, जिनपर भ्रमर बैठे हुए हैं ऐसे कमलोंकी पाँखुरीके समान थी ।।९।। मणियोंके बने हुए कुण्डलरूपी आभपणांसे उनके दोनों कान ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो चन्द्रमा और सूर्यसे अलंकृत आकाशके दो किनारे ही हो ॥१०॥ भगवान के मुखरूपी चन्द्रमामें जो कान्ति थी वह तीन लोकमें किसी भी दूसरी जगह नहीं थी सो ठीक ही है अमृतमें जो सन्तोष होता है वह क्या किसी दूसरी जगह दिखाई देता है ? ।।११।। उनका मुख मन्दहाससे मनोहर था, और
१. संहननम् । २. अप्रमेयं महावीर्य ५०, द०, म०, ल०। ३. असाधारणम् । ४. विभोः स० । ५. मुकुटाल-अ०, ५०, द०, ल०। ६. इन्द्रनीलमाणिक्यः । ७. उद्यान-। ८. मृगबन्धन्यौ। ९. स्मरहरिणस्य । १०.संधारणाय । ११. आ समन्तात्रीलकनीनिकयोः । १२. संतोषः।