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द्वादश पर्व
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नित्यजागरितैः काश्चित् निमेषालसलोचनाः । उपासांचक्रिरे नक्कं तां देव्यो विधृतायुधाः ॥ १८६॥ कदाचिज्जलकंलीभिर्वनक्रीडाभिरम्यदा । कथागोष्ठीभिरन्येद्युर्वेभ्यस्तस्यै धृतिं दधुः ॥ १८७ ॥ कदाचिद् गीत गोष्ठीभिर्वाद्यगोष्ठीभिरन्यदा । कर्हि चिन्नृत्य गोष्ठी भिर्देग्यस्तां पर्युपासत ॥ १८८ ॥ काश्चित् प्रेक्षणगोष्ठीषु' सलीलानर्त्तितभ्रुवः । 'वर्धमानलयैनेंटुः साङ्गहाराः सुराङ्गनाः ॥ १८९ ॥ काश्चिन्नृत्तविनोदेन' रेजिरे कृतरेचकाः । नभोरङ्गे" विलोलाङ्गयः सौदामिन्य इवोचः ॥ १९०॥ काश्चिदारचितैः स्थानैर्बभुविंक्षिप्तबाहवः । शिक्षमाणा इवानङ्गाद् धनुर्वेद" " जगज्जये ॥१९१॥ gotrafi किरस्येका' परितो रङ्गमण्डलम् । मदनग्रहमावेशे योक्तुकामेव लक्षिता ॥१९२॥ तदुरोज सरोजात मुकुलानि चकम्पिरे । "अनुनतिंतुमतासामिव नृत्तं कुतूहलात् ॥ १९३॥ अपाङ्गशरसन्धानैभ्रूलताचापकर्षणैः । धनुर्गुणनिवासीत् नृत्तगोष्ठी मनोभुवः ॥ १९४ ॥ स्मितमुन्निदन्तांशु पाठ्यं कलमनाकुलम् । सापाङ्ग वीक्षितं चक्षुः सलयश्च परिक्रमः ॥ १९५॥ इतीदमन्यदप्यासां ँ धतेऽनङ्गशराङ्गताम् । किमङ्गं संगतं " मात्रै' 'राङ्गिकैरसतां गतैः ॥ ३९६ ॥
देवियाँ मन्त्राक्षरोंके द्वारा उसका रक्षाबन्धन करती थीं || १८५|| निरन्तरके जागरणसे जिनके नेत्र टिमकाररहित हो गये हैं ऐसी कितनी ही देवियाँ रात के समय अनेक प्रकारके हथियार धारण कर माताकी सेवा करती थीं अथवा उनके समीप बैठकर पहरा देती थीं ||१८६ ॥ वे देवांगनाएँ कभी जलक्रीड़ासे और कभी वनक्रीड़ासे, कभी कथा-गोष्ठीसे ( इकट्ठे बैठकर कहानी आदि कहने से उन्हें सन्तुष्ट करती थीं ॥ १८७॥ वे कभी संगीतगोष्ठीसे, कभी वादित्रगोष्ठीसे और कभी नृत्यगोष्ठीसे उनकी सेवा करती थीं ||१८८|| कितनी ही देवियाँ नेत्रोंके द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट करनेवाली गोष्ठियों में लीलापूर्वक भौंह मचाती हुई और बढ़ते हुए लयके साथ शरीरको लचकाती हुई नृत्य करती थीं || १८९|| कितनी ही देवियाँ नृत्यक्रीड़ाके समय आकाशमें जाकर फिरकी लेती थीं और वहाँ अपने चंचल अंगों तथा शरीरकी उत्कृष्ट कान्तिसे ठीक बिजलीके समान शोभायमान होती थीं ॥ १९०॥ नृत्य करते समय नाट्य शास्त्र में निश्चित किये हुए स्थानोंपर हाथ फैलाती हुई कितनी ही देवियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो जगत्को जीतने के लिए साक्षात् कामदेव से धनुर्वेद ही सीख रही हों ॥। १९१|| कोई देवी रंग-बिरंगे चौकके चारों ओर फूल बिखेर रही थी और उस समय वह ऐसी मालूम होती थी मानो चित्रशाला में कामदेवरूपी ग्रहको नियुक्त ही करना चाहती हो । । १९२ || नृत्य करते समय उन देवांगनाओंके स्तनरूपी कमलों की बोंड़ियाँ भी हिल रही थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन देवांगनाओंके नृत्यका कौतूहलवश अनुकरण ही कर रही हों ॥। १९३ ।। देवांगनाओंकी उस नृत्यगोष्ठीमें बार-बार भौंहरूपी चाप खींचे जाते थे और उनपर बार-बार कटाक्षरूपी बाण चढ़ाये जाते थे जिससे वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवको धनुषविद्याका किया हुआ अभ्यास ही हो || १९४ || नृत्य करते समय वे देवियाँ दाँतोंकी किरणें फैलाती हुई मुसकराती जाती थीं, स्पष्ट और मधुर गाना गाती थीं, नेत्रोंसे कटाक्ष करती हुई देखती थीं और लयके साथ फिरकी लगाती थीं, इस प्रकार उन देवियोंका वह नृत्य तथा हाव-भाव आदि अनेक प्रकारके विलास, सभी कामदेव बोंके सहायक बाण मालूम होते थे और रसिकताको प्राप्त हुई शरीरसम्बन्धी चेष्टाओंसे मिले हुए उनके शरीरका तो कहना ही क्या है - वह तो हरएक प्रकार से
१. निमेपालस - निर्निमेप । २. सेवां चक्रुः । ३. रजन्याम् । ४. सेवां चक्रिरे । ५. प्रेक्षण - समुदाय नृत्यः । ६. ताललयैः । ७. अङ्गविक्षेपसहिताः । ८ - विनोदेषु अ०, प०, म०, स०, ६०, ल० । ९. कृतवल्गनाः । १०. नभोभागे अ० म०, ५०, स० । ११. उद्गतप्रभाः । १२. चापविद्याम् । १३. किरत्येका अ० म० । १४. अनुवर्तितु - प० द० म०, ल० । १५. अभ्यासः । १६. पादविक्षेपः । १७. इतीदमन्यथाध्यासां प० अ०, द०, स० । १८. संयुक्तं चेत् । १९. चेष्टितः । २०. रसिकत्वम ।