________________
चतुर्दशं पर्व
बाह्वोर्युगं च केयूरकटकाङ्गदभूषितम् । तस्य कल्पाङ्घ्रिपस्येव विटपद्वयमाबभौ ॥ १२ ॥ . रेजे मणिमयं दाम "किङ्किणीमिविराजितम् । कटीतटेऽस्य कल्पान' प्रारोह श्रियमुद्वहत् ॥ १३ ॥ पादौ गोमुख निर्मासैर्मणिभिस्तस्य रेजमुः । वाचालितौ सरस्वस्या कृतसेवाविवादरात् ॥ १४ ॥ लक्ष्म्याः पुञ्ज इवोद्भूतो धाम्नां राशिरिवोच्छिखः । 'माग्यानामिव संपात स्तदाभाद् भूषितो विभुः ॥ १५ ॥ सौन्दर्यस्येव संदोहः सौभाग्यस्येव संनिधिः । गुणानामिव संवास:" सालंकारो विभुर्वमौ ॥ १६ ॥ निसर्गरुचिरं मर्तुर्वपुभ्रंजे' सभूषणम् । सालंकारं कवेः काव्यमिव सुश्लिष्टबन्धनम् ॥ १७ ॥ प्रत्यङ्गमिति विन्यस्तैः पौलोम्या मणिभूषणैः । स रेजे कल्पशालीव शाखोल्का सिविभूषणः ॥ १८॥ इति प्रसाध्य तं देवमिन्द्रोरसंगगतं शची । स्वयं विस्मयमायासीत् पश्यन्ती रूपसंपदम् ॥ १९ ॥ संक्रन्दनोऽपि तत्र पशोमां द्रष्टुं तदानीम्" । सहस्राक्षोऽमवम्भूनं स्पृहयालुरतृप्तिकः २ ॥२०॥ तदा निमेषविमुखै' लवनैस्तं सुरासुराः । दशुगिरिराजस्य शिखामणिमिव क्षणम् ॥२१॥ ततस्तं स्तोतुमिन्द्राद्याः प्राक्रमन्त सुरोत्तमाः । वत्स्र्त्स्यत् तीर्थकरत्वस्य प्राभवं तद्धि पुष्कलम् " ॥ २२ ॥
१४
३०५
कण्ठकी शोभा बहुत भारी हो गयी थी ||११|| बाजूबन्द, कड़ा, अनन्त (अणत) आदिसे शोभायमान उनकी दोनों भुजाएँ ऐसी मालूम होती थीं मानो कल्पवृक्षकी दो शाखाएँ ही हों ॥ १२ ॥ भगवान् के कटिप्रदेशमें छोटी-छोटी घण्टियों ( बोरों) से सुशोभित मणिमयी करधनी ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो कल्पवृक्षके अंकुर ही हों ॥१३॥ गोमुखके आकार के चमकीले मणियोंसे शब्दायमान उनके दोनों चरण ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो सरस्वती देवी ही आदरसहित उनकी सेवा कर रही हो ||१४|| उस समय अनेक आभूषणोंसे शोभायमान भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीका पुंज ही प्रकट हुआ हो, ऊँची शिखावाली रत्नोंकी राशि ही हो अथवा भोग्य वस्तुओंका समूह ही हो ||१५|| अथवा अलंकारसहित भगवान् ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो सौन्दर्यका समूह ही हो, सौभाग्यका खजाना ही हो अथवा गुणोंका निवासस्थान ही हो ||१६|| स्वभावसे सुन्दर तथा संगठित भगवान्का शरीर अलंकारोंसे युक्त होनेपर ऐसा शोभायमान होने लगा था मानो उपमा, रूपक आदि अलंकारोंसे 'युक्त तथा सुन्दर रचनासे सहित किसी कविका काव्य ही हो ||१७|| इस प्रकार इन्द्राणीके द्वारा प्रत्येक अंगमें धारण किये हुए मणिमय आभूषणोंसे वे भगवान् उस कल्पवृक्षके समान शोभायमान हो रहे थे जिसकी प्रत्येक शाखापर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं ||१८|| इस तरह इन्द्राणीने इन्द्रकी गोदी में बैठे हुए भगवान्को अनेक वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत कर जब उनकी रूप-सम्पदा देखी तब वह स्वयं भारी आश्चर्यको प्राप्त हुई ||१९|| इन्द्रने भी भगवान् के उस समयकी रूपसम्बन्धी शोभा देखनी चाही, परन्तु दो नेत्रोंसे देखकर सन्तुष्ट नहीं हुआ इसीलिए मालूम होता है कि वह द्वचक्षसे सहस्राक्ष (हजारों नेत्रोंवाला) हो गया था - उसने विक्रिया शक्तिसे हजार नेत्र बनाकर भगवान्का रूप देखा था || २०|| उस समय देव और असुरोंने अपने टिमकाररहित नेत्रोंसे क्षग-भर के लिए मेरु पर्वत के शिखामणिके समान सुशोभित होनेवाले भगवान्को देखा || २१|| तदनन्तर इन्द्र आदि श्रेष्ठ देव उनकी स्तुति करनेके लिए तत्पर हुए सो ठीक ही है तीर्थंकर होनेवाले पुरुषका ऐसा ही अधिक प्रभाव होता है ||२२||
१. काञ्चीदाम । २. क्षुद्रघण्टिकाभिः । ३. कल्पाङ्ग-म०, ल० । ४. गोमुखवद्भासमानः । ५. घर्घरैः । ६. भोग्यानामिव म०, ल० । ७. पुञ्जः । ८. आश्रयः । ९. भेंजे प० अ० म०, ल० । १०. अलंकृत्य । ११. तत्कालभवाम् । १२. - रतप्तक: म०, ल० । १३. अनिमेषैः । १४. उपक्रमं चक्रिरे । १५. प्रभूतम् ।
३९