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चतुर्दश पर्व दिङ्मुखेल्सन्ति स्म युष्मस्नानाम्बुशीकराः । जगदानन्दिनः सान्द्रा यशसामिव राशयः ॥३४॥ प्रविलिप्तसुगन्धिस्त्वमविभूषितसुन्दरः । मनरभ्यर्षितोऽस्मामिभूषणः सानुलेपनैः ॥३५॥ लोकाधिकं दधद्धाम प्रादुरासीस्वमात्मभूः । मेरोग दिव मायास्तव देव समुद्भवः ॥३६॥ सद्योजातश्रुतिं बिभ्रत् स्वर्गावतरणेऽच्युतः । स्वमद्य वामता भस्से कामनीयकमुहहन् ॥३७॥ यथा शुद्धाकरोद्भूतो मणि: संस्कारयोगतः । दीप्यतेऽधिकमेव त्वं जातकर्माभिसंस्कृतः ॥३८॥ भारामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यन्ति केचन । स्वसद् यत्परं ज्योतिः प्रत्यक्षोऽसि स्वमच नः ॥३९॥ स्वामामनन्ति योगीन्द्राः पुराणपुरुषं पुरुम् । कवि पुराणमित्यादि पठन्तः स्तवविस्तरम् ॥४०॥ पूतात्मने नमस्तुभ्यं नमः ख्यातगुणाय ते । नमो भीतिमिदे तुभ्यं गुणानामेकभूतये ॥४१॥
"क्षमागुणप्रधानाय नमस्ते " क्षितिमूर्तये । जगदाहादिने तुभ्यं नमोऽस्तु सलिलात्मने ॥४॥ जल ) भी पवित्रताको प्राप्त हो गये हैं ॥३३॥ हे देव, आपके अभिषेकके जलकण सब दिशाओंमें ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो संसारको आनन्द देनेवाला और घनीभूत आपके यशका समूह ही हो ॥३४॥ हे देव, यद्यपि आप बिना लेप लगाये ही सुगन्धित हैं और बिना आभूषण पहने ही सुन्दर हैं तथापि हम भक्तोंने भक्तिवश ही सुगन्धित द्रव्योंके लेप और आभूषणोंसे आपकी पूजा की है ॥३५॥ हे भगवन् , आप तेजस्वी हैं और संसारमें सबसे अधिक. तेज धारण करते हुए प्रकट हुए हैं इसलिए ऐसे मालूम होते हैं मानो मेरु पर्वतके गर्भसे संसारका एक शिखामणि-सूर्य हो उदय हुआ हो॥३६॥ हे देव, स्वर्गावतरणके समय आप. 'सद्योजात' नामको धारण कर रहे थे, 'अच्युत' (अविनाशी) आप हैं ही और आज सुन्दरताको धारण करते हुए 'वामदेव' इस नामको भी धारण कर रहे हैं अर्थात् आप ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं ॥३७॥ जिस प्रकार शुद्ध खानिसे निकला हुआ मणि संस्कारके योगसे अतिशय देदीप्यमान हो जाता है उसी प्रकार आप भी जन्माभिषेकरूपी जातकर्मसंस्कारके योगसे अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ॥३८॥ हे नाथ, यह जो ब्रह्माद्वैतवादियोंका कहना है कि 'सब लोग परं ब्रह्मकी शरीर आदि पर्यायें ही देख सकते हैं उसे साक्षात् कोई नहीं देख सकते' वह सब झूठ है क्योंकि परं ज्योतिःस्वरूप आप आज हमारे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहे हैं ।।३९।। हे देव, विस्तारसे आपकी स्तुति करनेवाले योगिराज आपको पुराणपुरुष, पुरु, कवि और पुराण आदि मानते हैं ॥४०॥हे भगवन् , आपकी आत्मा अत्यन्त पवित्र है इसलिए आपको नमस्कार हो, आपके गुण सर्वत्र प्रसिद्ध हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप जन्ममरणका भय नष्ट करनेवाले हैं और गुणोंके एकमात्र उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥४१॥ हे नाथ, आप क्षमा (पृथ्वी) के समान क्षमा (शान्ति ) गुणको ही प्रधान रूपसे धारण करते हैं इसलिए क्षमा अर्थात् पृथिवीरूपको धारण करनेवाले आपके लिए नमस्कार हो, आप जलके समान जगत्को आनन्दित करनेवाले हैं इसलिए जलरूपको
१. भाक्तिकः । २. स्वयंभूः । ३. मेरोर्गर्भादिवोद्भूतो भुवनैकशिखामणिः अ०, ५०, ६०, स०, ल. । म० पुस्तके द्विविधः पाठः । ४. उत्पत्तिः । ५. पक्षे वक्रताम् । ६. शरीरादिपर्यायम् । ७. परब्रह्मणः । ८. परब्रह्मणम् । ९. मृषा । १०. यस्मात् कारणात् । ११. विनाशकाय । १२. सूतये म०, ६०, स०, ट० । म० पुस्तके 'भूतये' इत्यपि पाठः । सूतये उत्पत्य । १३. शान्तिगुणमुख्याय । हेतुभितमेतद्विशेषणम् । १४. पृथिवीमूर्तये । अयमभिप्राय:- यथा क्षित्यां क्षमागुणो. विद्यते तथैव तस्मिन्नपि क्षमागुणं विलोक्य गुण... साम्यात् क्षितिमूर्तिरित्युक्तम् । एवमष्टमतिष्वपि यथायोग्य योज्यम् ।