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चतुर्देशं पर्व
३१३ प्रनृत्यदिव सौमुख्यमिव तदर्शयत् पुरम् । सनेपथ्यमिवानन्दात् प्रजल्पदिव चाभवत् ॥११॥ ततो गीतैश्च नृत्तैश्च वादित्रैश्च समङ्गलैः । व्यग्रः पारजनः सर्वोऽप्यासीदानन्दनिर्भरः ॥१२॥ न तदा कोऽप्यभूद् दीनो न तदा कोऽपि दुर्विधः । न तदा कोऽप्यपूर्णेच्छौं न तदा कोऽप्यकौतुकः ॥१३॥ सप्रमोदमयं विश्वमित्यातन्वन्महोत्सवः । यथा मेरो तथैवास्मिन् पुरे सान्तःपुरेऽवृतत् ॥१४॥ दृष्ट्वा प्रमुदितं तेषां स्वं प्रमोद प्रकाशयन् । संक्रन्दनो मनोवृत्तिमानन्दानन्दनाटके ॥१५॥ नृत्तारम्भे महंन्द्रस्य सज्जः"संगीतविस्तरः । "गन्धर्वस्तद्विधानाण्डोपवहनादिभिः ॥१६॥ कृतानुकरणं नाट्यं तत्प्रयोज्यं यथागमम् । स चागमा महेन्द्राधैर्यथाम्नाय मनुस्मृतः ॥९७॥ वक्तणां तत्प्रयोक्तृत्वे लालित्यं किमु वर्ण्यते। पात्रान्तरेऽपि संक्रान्तं यत् सतां चित्तरञ्जनम् ॥१८॥ ततः श्रन्यं च दृश्यं च तत्प्रयुक्तं महात्मनाम् । पाठ्यैर्नानाविधैश्चित्रै राशिकाभिनयैरपि॥१९॥
विकृष्टः" कुतपन्यासो' मही सकुलभूधरा । रात्रिभुवनामोगः सहस्राक्षो महानटः ॥१०॥ था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वस्त्राभूषण ही धारण किये हो और प्रारम्भ किये हुए संगीतके शब्दसे उस नगरकी समस्त दिशाएँ भर रही थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह आनन्दसे बातचीत ही कर रहा हो अथवा गा रहा हो ॥९०-९१।। इस प्रकार आनन्दसे भरे हुए समस्त पुरवासी जन गीत, नृत्य, वादित्र तथा अन्य अनेक मङ्गल-कार्यों में व्यग्र हो रहे थे ॥९२।। उस समय उस नगरमें न तो कोई दीन रहा था, न निर्धन रहा था, न कोई ऐसा ही रहा था जिसकी इच्छाएँ पूर्ण नहीं हुई हों और न कोई ऐसा ही था जिसे आनन्द उत्पन्न नहीं हुआ हो ॥१३॥ इस तरह सारे संसारको आनन्दित करनेवाला वह महोत्सव जैसा मेरु पवंतपर हुआ था वैसा ही अन्तःपुरसहित इस अयोध्यानगरमें हुआ।।९४॥ उन नगरवासियोंका आनन्द देखकर अपने आनन्दको प्रकाशित करते हुए इन्द्रने आनन्द नामक नाटक करनेमें अपना मन लगाया ।।१५।। ज्यों ही इन्द्रने नृत्य करना प्रारम्भ किया त्यों ही संगीतविद्याके जाननेवाले गन्धर्वोने अपने बाजे वगैरह ठीक कर विस्तारके साथ संगीत करना प्रारम्भ कर दिया ।।९।। पहले किसीके द्वारा किये हुए कार्यका अनुकरण करना नाट्य कहलाता है, वह नाट्य, नाट्यशास्त्र के अनुसार ही करने के योग्य है और उस नाट्यशाखको इन्द्रादि देव ही अच्छी तरह जानते हैं ।।१७।। जो नाट्य या नृत्य शिष्य-प्रतिशिष्यरूप अन्य पात्रों में संक्रान्त होकर भी सजनोंका मनोरंजन करता रहता है यदि उसे स्वयं उसका निरूपण करनेवाला ही करे तो फिर उसको मनोहरताका क्या वर्णन करना है? ॥९॥ तत्पश्चात अनेक प्रकारके पाठों और चित्र-विचित्र शरीरकी चेष्टाओंसे इन्द्र के द्वारा किया हुआ वह नृत्य महात्मा पुरुषों के देखने और सुनने योग्य था ।।१९। उस समय अनेक प्रकारके बाजे बज रहे थे, तीनों लोकोंमें फैली हुई कुलाचलोंसहित पृथिवी ही उसकी रंगभूमि थी, स्वयं इन्द्र प्रधान नृत्य करनेवाला था, नाभिराज आदि उत्तम-उत्तम पुरुष उस नृत्यके दर्शक थे, जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव उसके आराध्य (प्रसन्न करने योग्य) देव थे, और धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थोंकी सिद्धि तथा
१. सुमुखत्वम् । २. सालंकारम् । ३. वाद्यः । ४. आसक्तः । ५. लुब्धः । ६. दरिद्रः। ७. असम्पूर्णवाञ्छः । ८. प्रमोदम् । ९. नाभिराजादीनाम् । १०. -मबद्वानन्दनाटके १०,८०, म.। आनन्द बबन्ध । 'अदु बन्धने' लिट् । ११. कृतप्रयत्नः । १२. गीतः देवभेदैर्वा । १३. वावधारणादिभिः। १४: पूर्वस्मिन् कृतस्यानुकरणमभिनयः । १५. नाट्यशास्त्रानतिक्रमेण । १६. सन्ततिमनतिक्रम्य । १७. मातः । १८. तन्नाटयप्रयोक्तत्वे । १९. ललितत्वम् । २०. पात्रभेदेऽपि । २१. यत् नाटयशास्त्रलालित्यं पात्रान्तरेऽपि संक्रान्स चेत् । २२. ततः कारणात् । २३. नाटयम् । २४. महात्मना द०, ट। महेन्द्रेण । २५. गद्यपद्यादिभिः । २६. बड़-. जनिताभिनयः । २७. विलिखितः; ताडित इत्यर्थः । २८. बाबानां न्यासः । 'कुतपो गवि विप्रे बहावतियों च भागिनेये च । अस्त्री दिनाष्टमांशे कुशतिलयोः छागकम्बले वाये ॥' इत्यभिधानात् । २९. त्रिलोकस्यामोगो विस्तारो यस्य सः । ३०. महानर्तकः । .
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