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आदिपुराणम् तस्मिन्याहुसहस्राणि विकृत्य प्रणिनुस्यति । धरा चरणविन्यासैः स्फुटन्तीव तदाचलत् ॥१२२॥ कुलाचलाचलन्ति स्म तृणानामिव राशयः । प्रभूजलधिरुद्वेल: प्रमदादिव निर्खनन् ॥१२३॥ लसद्बाहुमहोदनविग्रहः सुरनायकः । कल्पांत्रिप इवानतींचलदंशुकभूषणः ॥१२४॥ चलत्तन्मौलिरलांशुपरिवेषेनमःस्थलम् । तदा विविद्युते विद्युत्सहस्तैरिव सन्ततम् ॥१२५॥ विक्षिप्ता बाहुविक्षेपैस्तारकाः परितोऽभ्रमन् । भ्रमणाविद्धविच्छिन्नहारमुक्ताफलश्रियः ॥१२६॥ नृत्यतोऽस्य भुजोल्लासैः पयोदाः परिघहिताः । पयोलबच्युतो रंजुः शुचेव क्षरशः र रेचकऽस्य चलन्मौलिमोच्छलन्मणिरोतयः ।''वेगाविद्धाः समं भैमुरलातवलयायिताः ॥१२८॥ नृत्तक्षोमान्महीक्षोभे क्षुभिता जलराशयः । क्षालयन्ति स्म दिग्भित्तीः ''पोश्चलज्जलशीकरः ॥१२९॥ क्षणादकःक्षणान्नैक: अणाद्न्यापीक्षणादणुः । क्षणादारात् क्षणाद्दूरे क्षणाद् ब्योम्नि अण्णाद् भुवि ।१३० इति प्रतन्वतास्मीयं सामथ्य विक्रियोस्थितम् । इन्द्रजालमिवेन्द्रेण प्रयुक्तमभवत् तदा ॥१३१ नेटुरप्सरसः शक्रभुजशाखासु मस्मिताः । सलीलभलतोत्क्षेपमङ्गहारः सचारिभिः" ॥१३२॥
समय वह इन्द्र विक्रियासे हजार भुजाएँ बनाकर नृत्य कर रहा था, उस समय पृथिवी उसके पैरोंके रखनेसे हिलने लगी थी मानो फट रही हो, कुलपर्वत तृणोंकी राशिके समान चञ्चल हो उठे थे और समुद्र भी मानो आनन्दसे शब्द करता हुआ लहराने लगा था ॥१२२-१२३।। उस समय इन्द्र की चञ्चल भुजाएँ बड़ी ही मनोहर थीं, वह शरीरसे स्वयं ऊँचा था
और चञ्चल वस्त्र तथा आभूषणोंसे सहित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो जिसकी शाखाएँ हिल रही हैं, जो बहुत ऊँचा है और जो हिलते हुए वन तथा आभूषणोंसे सुशोभित है ऐसा कल्पवृक्ष ही नृत्य कर रहा हो ॥१२४।। उस समय इन्द्र के हिलते हुए मुकुटमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंके मण्डलसे व्याप्त हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो हजारों बिजलियोंसे ही व्याप्त हो रहा हो ॥१२५।। नृत्य करते समय इन्द्रकी भुजाओंके विक्षेपसे बिखरे हुए तारे चारों ओर फिर रहे थे और ऐसे मालूम होते थे मानो फिरको लगानेसे टूटे हुए हारके मोती ही हों ॥१२६।। नृत्य करते समय इन्द्रकी भुजाओंके उल्लाससे टकराये हुए तथा पानीकी छोटी-छोटी बूंदोंको छोड़ते हुए मेघ ऐसे मालूम होते थे मानो शोकसे आँसू ही छोड़ रहे हों ॥१२७।। नृत्य करते-करते जब कभी इन्द्र फिरकी लेता था तब उसके वेगके आवेशसे फिरती हुई उसके मुकुटके मणियोंकी पङ्क्तियाँ अलात चक्रकी नाई भ्रमण करने लगती थीं ॥१२८॥ इन्द्र के उस नृत्यके झोभसे पृथिवी भुभित हो उठी थी, पृथिवीके क्षुभित होनेसे समुद्र भी क्षुभित हो उठे थे और उछलते हुए जलके कणोंसे दिशाओंकी भित्तियोंका प्रक्षालन करने लगे थे ॥१२९॥ नृत्य करते समय वह इन्द्र क्षण-भर में एक रह जाता था, क्षण-भरमें अनेक हो जाता था, क्षण-भर में सब जगह व्याप्त हो जाता था, क्षण-भर में छोटा-सा रह जाता था, क्षण-भर में पास ही दिखाई देता था, भण-भरमें दूर पहुँच जाता था, अण-भर में आकाशमें दिखाई देता था, और भण-भरमें फिर जमीनपर आ जाता था, इस प्रकार विक्रियासे उत्पन्न हुई अपनी सामथ्यको प्रकट करते हुए उस इन्द्रने उस समय ऐसा नृत्य किया था मानो इन्दजालका खेल ही किया हो ॥१३०-१३१॥ इन्द्रकी भुजारूपी शाखाओंपर मन्द-मन्द हँसती हुई अप्सराएँ लीलापूर्वक भौंहरूपी लताओंको चलाती हुई, शरीर हिलाती हुई और
१. विकुर्वणां कृत्वा । २. चलति स्म । ३. नितरां ध्वनन् । ४.-नभस्तलम् अ०, ५०, द०, स०, म०, ल०। ५. विस्तृतम् । ६. विप्रकीर्णाः । ७. प्रेरित । ८. गलदश्रुबिन्दवः । ९. भ्रमणे । रेचकस्य 'ल.. १०. पक्तयः। प्रवाहाः । ११. वेगेनाताडिताः । १२. प्रोच्छलज्जल-अ०, ५०, द०, स०, ल० । १३. अङ्गविक्षेपः। १४. पादन्यासभेदसहितः ।