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आदिपुराणम् प्रेक्षका नाभिराजाद्याः समाराध्यो जगद्गुरुः । फलं त्रिवर्गसंमृतिः परमानन्द एव च ॥१०॥ इत्येकक्षोऽपि संप्रीत्यै वस्तुजातमिदं सताम् । किमु तत्सर्वसंदोहः पुण्यैरेकत्र संगतः ॥१०२॥ कृत्वा समवतारं तु त्रिवर्गफलसाधनम् । जन्माभिषेकसंबन्धं प्रायुक्तैनं तदा हरिः ॥१०॥ तदा प्रयुक्तमन्यच्च रूपकं बहुरूपकम् । दशावतारसंदर्ममधिकृस्य जिनेशिनः ॥१०४॥ तत्प्रयोगविधौ पूर्व पूर्वरङ्ग समङ्गलम् । प्रारेमे मघवाघानां विधाताय समाहितः ॥१०५॥ पूर्वरङ्गप्रसंगेन' पुष्पाञ्जलिपुरस्सरम् । ताण्डवारम्ममेवाने''सुरप्राग्रहरोऽग्रहीत् ॥१०६॥ प्रयोज्य 'नान्दीमन्तेऽस्या विशन र बभौ हरिः। तमङ्गलनेपथ्यो" नाव्यवेदावतारवित्॥१०॥ स रामवतीर्णोऽभाद् वैशाखस्थानमास्थितः । लोकस्कन्ध इवोतो"मरुद्भिरमितो वृतः ॥१०॥ "मध्येरङ्गमसौ रेजे क्षिपन् पुष्पाञ्जलिं हरिः । "विमजचिव पीता शेषनाव्यरसं स्वयम् ॥१०९॥ ललितोटनेपथ्यो'लसनयनसन्ततिः । स रेजे कल्पशाखीव सप्रसूनः समषणः ॥११॥
"पुष्पाञ्जलिः पतन् रेजे मत्तालिभिरनुतः । नेत्रौध इव वृत्रघ्नः४ २कल्माषितनमोऽङ्गणः ॥१११॥ परमानन्दरूप मोक्षकी प्राप्ति होना ही उसका फल था। इन ऊपर कही हुई वस्तुओंमें से एकएक वस्तु भी सज्जन पुरुषोंको प्रोति उत्पन्न करनेवाली है फिर पुण्योदयसे पूर्वोक्त सभी वस्तुओंका समुदाय किसी एक जगह आ मिले तो कहना हो क्या है ? ॥१००-१०२।। उस समय इन्द्रने पहले त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) रूप फलको सिद्ध करनेवाला गर्भावतारसम्बन्धी नाटक किया और फिर जन्माभिषेकसम्बन्धी नाटक करना प्रारम्भ किया ।। १०३ ॥ तदनन्तर इन्द्रने भगवान्के महाबल आदि दशावतार सम्बन्धी वृत्तान्तको लेकर अनेक रूप दिखलानेवाले अन्य अनेक नाटक करना प्रारम्भ किये ॥ १०४ ॥ उन नाटकोंका प्रयोग करते समय इन्द्रने सबसे पहले, पापोंका नाश करनेके लिए मंगलाचरण किया और फिर सावधान होकर पूर्वरंगका प्रारम्भ किया ॥१०५॥ पूर्वरंग प्रारम्भ करते समय इन्द्रने पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते हुए सबसे पहले ताण्डव नृत्य प्रारम्भ किया ॥१०६॥ ताण्डव नृत्यके प्रारम्भमें उसने नान्दी मङ्गल किया और फिर नान्दी मंगल कर चुकनेके बाद रंग-भूमिमें प्रवेश किया। उस समय नाट्यशास्त्रके अवतारको जाननेवाला और मंगलमय वस्त्राभूषण धारण करनेवाला वह इन्द्र बहुत ही शोभायमान हो रहा था॥१०७॥ जिस समय वह रंग-भूमिमें अवतीर्ण हआ था उस समय वह वैशाख-आसनसे खड़ा हुआ था अर्थात् पैर फैलाकर अपने दोनों हाथ कमरपर रखे हुए था और चारों ओरसे मरुत् अर्थात् देवोंसे घिरा हुआ था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मरुत् अर्थात् वातवलयोंसे घिरा हुआ लोकस्कन्ध हो हो ॥१०८॥ रंग-भूमिके मध्यमें पुष्पाञ्जलि बिखेरता हुआ वह इन्द्र ऐसा भला मालूम होता था मानो अपने पान करनेसे बचे हुए नाट्यरसको दूसरोंके लिए बाँट ही रहा हो॥१०६।। वह इन्द्र अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषणोंसे शोभायमान था और उत्तम नेत्रोंका समूह धारण कर रहा था इसलिए पुष्पों और आभूषणोंसे सहित किसी कल्पवृक्षके समान सुशोभित हो रहा था ॥११०।। जिसके पीछे अनेक मदोन्मत्त भौरे दौड़ रहे हैं ऐसी वह पड़ती हुई पुष्पाञ्जलि ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाशको चित्र-विचित्र
१. सभापतिः । २. उत्पत्तिः । ३. गर्भावतारम् । ४. प्रयुक्तवान् । ५. भूमिकाम् । ६. महाबलादि। ७. पूर्वशुद्धचित्रमिति । 'यन्नाटयवस्तुनः पूर्व रङ्गविघ्नोपशान्तये । कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते ॥' ८. अवधानपरः । ९. पूर्वरङ्गविधानेन । १०. ललितभाषणगर्भलास्यं ताण्डवं तस्यारम्भम् । ११. सुरश्रेष्ठः । १२. जझरपूजामङ्गल-पटहोच्चारणपुष्पाञ्जलिक्षेपणादिनान्दीविधिम् । १३. नान्द्याः। १४. मङ्गलालंकारः । १५. नाटयशास्त्रम् । १६.-वित् वत् म. पुस्तके द्वौ पाठौ। ११. देवः। १८. रङ्गस्य मध्ये । १९. दिशि दिशि विभागोकुर्वन् । २०. पीतावशिष्टं नाटय-प०, अ०, ल०। २१. मनोज्ञोल्वणालङ्कारः । २२. अयं श्लोकः पुरुदेवचम्पूकारेण स्वकीये पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे पञ्चमस्तवकस्य चतुविशतितमश्लोकतां प्रापितः । २३ अनुगतः । २४. वाघ्नः अ०, ५०, म०,६०, स०, ल० । २५. कर्बुरित ।