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चतुर्दशं पर्व
३१९ विमिनरसमित्युच्चैदर्शयन् नाव्यमद्भुतम् । सामाजिकजने शक्रः परां प्रीतिमजीजनत् ॥१५६॥ गन्धर्वनायकारब्धविविधातोद्यसंविधिः । आनन्दनृत्यमित्युग्चर्मघवा निरवर्त्तयत् ॥१५७॥ सकंसतालमुद्रेणु विततध्वनिसंकुलम् । साप्सरः सरसं नृत्तं तदुद्यानमिवाद्युतत् ॥१५॥ नामिराजः समं देव्या दृष्ट्वा तनाट्यमद्भुतम् । विसिस्मिये परां श्लाघां प्रापच्च सुरसत्तमैः ॥१५९॥ वृषभोऽयं जगज्ज्येष्ठो वर्षिष्यति जगद्धितम् । धर्मामृतमितीन्द्रास्तमकार्पवृषमाह्वयम् ॥१६॥ वृषो हि भगवान् धर्मस्तेन यद्भाति तीर्थकृत् । ततोऽयं वृषमस्वामीत्याहा स्तैनं पुरन्दरः ॥१६१॥ स्वर्गावतरणे इष्टः स्वप्नेऽस्य वृषभो यतः । जनन्या तदयं देवैराहूतो वृषमाख्यया ॥१६२॥ पुरुहूतः पुरुं देवमालयन्नाख्ययानया । पुरुहूत इति ख्याति बमारान्वर्थतां गताम् ॥१६३॥
"ततोऽस्य सवयोरूप"वेषान्सुरकुमारकान् । निरूप्य परिचर्याय दिवं जग्मुर्घनायकाः ॥१६॥ . धात्र्यो नियोजितावास्य देण्यः शक्रेण सादरम् । मज्जने मण्हने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च ॥१६५॥ ताण्डव नृत्य हो रहा था और दूसरी ओर सुकुमार प्रयोगोंसे भरा हुआ लास्य नृत्य हो रहा था॥१५५।। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रसवाले, उत्कृष्ट और आश्चर्यकारक नृत्य दिखलाते हुए इन्द्रने सभाके लोगोंमें अतिशय प्रेम उत्पन्न किया था॥१५६।। इस प्रकार जिसमें श्रेष्ठ गन्धर्वोके द्वारा अनेक प्रकारके बाजोंका बजाना प्रारम्भ किया गया था ऐसे आनन्द नामक नृत्यको इन्द्रने बड़ी सजधजके साथ समाप्त किया ॥१५७। उस समय वह नृत्य किसी उद्यानके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार उद्यान काँस और ताल (ताइ) वृक्षोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह नृत्य भी काँसेकी बनी हुई झाँझोंके तालसे सहित था, उद्यान जिस प्रकार ऊँचे-ऊँचे बाँसोंके फैलते हुए शब्दोंसे व्याप्त रहता है उसी प्रकार वह नृत्य भी उत्कृष्ट बाँसुरियोंके दूर तक फैलनेवाले शब्दोंसे न्याप्त था, उद्यान जिस प्रकार अप्सर अर्थात् जलके सरोवरोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह नृत्य भी अप्सर अर्थात् देवनर्तकियोंसे सहित था और उद्यान जिस प्रकार सरस अर्थात् जलसे सहित होता है उसी प्रकार वह नृत्य भी सरस अर्थात् शृङ्गार आदि रसोंसे सहित था॥१५८।। महाराज नाभिराज मरुदेवोके साथ-साथ वह आश्चर्यकारी नृत्य देखकर बहुत ही चकित हुए और इन्द्रोंके द्वारा की हुई
को प्राप्त हुए ॥१५९।। ये भगवान् वृषभदेव जगत्-भरमें ज्येष्ठ हैं और जगत्का हित करनेवाले धर्मरूपी अमृतकी वर्षा करेंगे इसलिए ही इन्द्रोंने उनका वृषभदेव नाम रखा था ॥१६०।। अथवा वृष श्रेष्ठ धर्मको कहते हैं और तीथकर भगवान् उस वृष अर्थात् श्रेष्ठ धर्मसे शोभायमान हो रहे हैं इसलिए ही इन्द्रने उन्हें 'वृषभ-स्वामी' इस नामसे पुकारा था ।।१६।। अथवा उनके गर्भावतरणके समय माता मरुदेवीने एक वृषभ देखा था इसलिए ही देवोंने उनका 'वृषभ' नामसे आह्वान किया था ॥१६२।। इन्द्रने सबसे पहले भगवान् वृषभनाथको 'पुरुदेव' इस नामसे पुकारा था इसलिए इन्द्र अपने पुरुहूत (पुरु अर्थात् भगवान् वृषभदेवको आह्वान करनेवाला) नामको सार्थक ही धारण करता था ॥१६॥ तदनन्तर वे इन्द्र भगवान्की सेवाके लिए समान अवस्था, समान रूप और समान वेषवाले देवकुमारोंको निश्चित कर अपने-अपने स्वर्गको चले गये ॥१६४॥ इन्द्रने आदरसहित भगवानको स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीरके संस्कार (तेल, कजल आदि लगाना) करने और क्रीडा करानेके कार्यमें अनेक देवियोंको धाय बनाकर नियुक्त किया था ॥१६५।। .
१. सभाजने । २. सामग्री। ३. कसतालसहितम् । ४. उद्गतवासादि उन्नतवंशं च । ५. ततविततघनशुषिरभेदेन चतुर्विधवाद्येषु विततशब्देन पटहादिकमुच्यते अमरसिंहे-ततमानढशब्देनोक्तम्-'आनदं मुरजादिकम्' इति । पटहादिवाद्यध्वनिसंकीर्णम्, पक्षे पक्षिविस्तृतध्वनिसंकीर्णम् । ६. देवस्त्रीसहितम्, पक्षे जलभरितसरो... वरसहितम् । साप्सरं ल०। ७. शृङ्गारादिरसयुक्तम । पक्षे रसयुक्तम् । ८. पूज्यः। ९. आह्वयति स्म । १०. अनन्तरम् । ११. समानप्रायरूपाभरणम् । १२. शुश्रूषायै । १३. स्तनधायिविधी।